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________________ 144] [नन्दीसूत्र अप्राप्यकारी सिद्ध किया गया है। प्राण, रसन और स्पर्शन इन्द्रियों से बद्धस्पृष्ट हुआ-प्रगाढ सम्बन्ध को प्राप्त पुद्गल अर्थात् गन्ध, रस और स्पर्श जाने जाते हैं। ७०-भासा-समसेढीग्रो, सहज सुणइ मोसियं सुणइ / बीसेणी पुण सह, सुणेइ नियमा पराधाए / ७०---वक्ता द्वारा छोड़े गए जिन भाषारूप पुद्गल-समूह को समवेणि में स्थित श्रोता सुनता है, उन्हें नियम से अन्य शब्द द्रव्यों से मिश्रित ही सुनता है। विश्रेणि में स्थित श्रोता शब्द को नियम से पराधात होने पर ही सुनता है / विवेचन-वक्ता काययोग से भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें वचनरूप में परिणत करके वचनयोग से छोड़ता है। प्रथम समय में गृहीत पुद्गल दूसरे समय में और दूसरे समय में गृहीत तीसरे समय में छोड़े जाते हैं। वक्ता द्वारा छोड़े गए शब्द उसकी सभी दिशाओं में विद्यमान श्रेणियों--प्राकाश की प्रदेशपंक्तियों में अग्रसर होते हैं, क्योंकि श्रेणी के अनुसार ही उनकी गति होती है, विश्रेणि में गति नहीं होती। जब वक्ता बोलता है तो समणि में गमन करते हुए उसके द्वारा मुक्त शब्द, उसी श्रेणि में पहले से विद्यमान भाषाद्रव्यों को अपने रूप में-शब्द रूप में परिणत कर लेते हैं / इस प्रकार वे दोनों प्रकार के शब्द मिश्रित हो जाते हैं। उन मिश्रित शब्दों को ही समश्रेणी में स्थित श्रोता ग्रहण करता है / कोरे वक्ता द्वारा छोड़े गए शब्द-परिणत पुद्गलों को कोई भी श्रोता ग्रहण नहीं करता। यह समश्रेणि में स्थित श्रोता की बात हई। मगर विश्रेणि में अर्थात् बक्ता द्वारा मुक्त शब्द द्रव्य जिस श्रेणि में गमन कर रहे हों, उससे भिन्न श्रेणि में स्थित श्रोता किस प्रकार के शब्दों को सुनता है ? क्योंकि वक्ता द्वारा निसृष्ट शब्द विश्रेणि में जा नहीं सकते। इस शंका का समाधान गाथा के उत्तरार्ध में किया गया है। वह यह है कि विश्रेणि में स्थित श्रोता, न तो वक्ता द्वारा निसष्ट शब्दों को सुनता है, न मिश्रित शब्दों को ही। वह वासित शब्दों को ही सुनता है। इसका तात्पर्य यह है कि वक्ता द्वारा निसृष्ट शब्द, दूसरे भाषाद्रव्यों को शब्दरूप में वासित करते हैं, और वे वासित शब्द, विभिन्न समय णियों में जाकर वक्ता को सुनाई देते हैं / ७१-ईहा अपोह वीमांसा, मग्गणा य गवेसणा। सना-सई-मई-पन्ना, सव्वं प्राभिणिबोहियं / / से तं प्राभिणिबोहियनाणपरोक्खं, से तं मइनाणं / / ७१-ईहा-सदर्थपर्यालोचनरूप, अपोह-निश्चयात्मक ज्ञान, विमर्श, मार्गणा- अन्वयधर्मविधान रूप, और गवेषणा-व्यतिरेक धर्मनिराकरणरूप तथा संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा, ये सब प्राभिनिबोधिक-मतिज्ञान के पर्यायवाची नाम हैं / यह प्राभिनिबोधिक ज्ञान-परोक्ष का विवरण पूर्ण हुआ / इस प्रकार मतिज्ञान का विवरण सम्पूर्ण हुमा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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