________________ जिनवाणी को पुस्तकारूढ करने का यह ऐतिहासिक कार्य वस्तुत: आज की समग्न ज्ञान-पिपासु प्रजा के लिए एक अवर्णनीय उपकार सिद्ध हा / संस्कृति, दर्शन, धर्म तथा आत्म-विज्ञान की प्राचीनतम ज्ञानधारा को प्रवहमान रखने का यह उपक्रम वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात् प्राचीन नगरी वलभी (सौराष्ट्र) में प्राचार्य श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ / वैसे जैन आगमों की यह दूसरी अन्तिम वाचना थी; पर लिपिबद्ध करने का प्रथम प्रयास था / अाज प्राप्त जैन सूत्रों का अन्तिम स्वरूप-संस्कार इसी वाचना में सम्पन्न किया गया था। पुस्तकारूढ होने के बाद आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु काल-दोष, श्रमण-संघों के आन्तरिक मतभेद, स्मृतिदुर्बलता, प्रमाद एवं भारतभूमि पर बाहरी आक्रमणों के कारण विपुल ज्ञान-भण्डारों का विध्वंस आदि अनेकानेक कारणों से आगम ज्ञान की विपुल सम्पत्ति, अर्थवोध की सम्यक गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण एवं विलुप्त होने से नहीं रुकी। प्रागमों के अनेक महत्वपूर्ण पद, सन्दर्भ तथा उनके गूढार्थ का ज्ञान, छिन्नविच्छिन्न होते चले गए। परिपक्व भाषाज्ञान के अभाव में, जो आगम हाथ से लिखे जाते थे, वे भी शुद्ध पाठ वाले नहीं होते, उनका सम्यक अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही मिलते / इस प्रकार अनेक कारणों से ग्रागम की पावन धारा संकुचित होती गयी। विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी में वीर लोकाशाह ने इस दिशा में क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। प्रागमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चाल हुया / किन्तु कुछ काल बाद उसमें भी व्यवधान उपस्थित हो गये। साम्प्रदायिक-विद्वेष, सैद्धांतिक विग्रह, तथा लिपिकारों का अत्यल्प ज्ञान आगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक अर्थबोध में बहुत बड़ा विध्न बन गया। ग्रागम-अभ्यासियों को शुद्ध प्रतियां मिलना भी दुर्लभ हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब प्रागम-मुद्रण की परम्परा चली तो सुधी पाठकों को कुछ सुविधा प्राप्त हुई। धीरे-धीरे विद्वत-प्रयासों से प्रागमों की प्राचीन चुणियाँ, नियुक्तियाँ, टीकायें अादि प्रकाश में आई और उनके आधार पर आगमों का स्पष्ट-सुगम भावबोध सरल भाषा में प्रकाशित हुआ। इसमें प्रागम-स्वाध्यायी तथा ज्ञान-पिपासु जनों को सुविधा हुई। फलतः प्रागमों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति बढ़ी है। मेरा अनुभव है, अाज पहले से कहीं अधिक प्रागम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है, जनता में प्रागमों में प्रति आकर्षण व रुचि जागत हो रही है। इस रुचि-जागरण में अनेक विदेशी प्रागमज्ञ विद्वानों तथा भारतीय जैनेतर विद्वानों की प्रागम-श्रुत-सेवा का भी प्रभाव व अनुदान है, इसे हम सगौरव स्वीकारते हैं। आगम-सम्पादन-प्रकाशन का यह सिलसिला लगभग एक शताब्दी से व्यवस्थित चल रहा है। इस महनीयश्रत-सेवा में अनेक समर्थ श्रमणों, पुरुषार्थी विद्वानों का योगदान रहा है। उनकी सेवायें नीव की ईट की तरह प्राज भले ही अदृश्य हों, पर विस्मरणीय तो कदापि नहीं, स्पष्ट व पर्याप्त उल्लेखों के अभाव में हम अधिक विस्तृत रूप में उनका उल्लेख करने में असमर्थ हैं, पर विनीत व कृतज्ञ तो हैं ही। फिर भी स्थानकवासी जैन परम्परा के कुछ विशिष्ट-पागम श्रुत-सेवी मुनिवरों का नामोल्लेख अवश्य करना चाहूंगा। आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने जैन आगमों---३२ सूत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था। उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों का अनुवाद कार्य सिर्फ 3 वर्ष व 15 दिन में पूर्ण कर अदभत कार्य किया। उनकी दृढ लगनशीलता, साहस एवं सागम ज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वतः परिलक्षित होती है। वे 32 ही आगम अल्प समय में प्रकाशित भी हो गये। इससे प्रागमपठन बहत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानकवासी-तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org