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________________ 700] [उत्तराध्ययनसूत्र कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा // 25 // 33 // ___कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय / कर्म से ही वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है। उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई। भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई // 25 // 41 // ___ जो भोगी है, वह कर्मों से लिप्त होता है और जो अभोगी-भोगासक्त नहीं है वह कर्मों से लिप्त नहीं होता / भोगासक्त संसार में परिभ्रमण करता है / भोगों में अनासक्त ही संसार से मुक्त होता है / विरत्ता हु न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए // 25143 / / मिट्टी के सूखे गोले के समान विरक्त साधक कहीं भी चिपकता नहीं है अर्थात् प्रासक्त नहीं होता। नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गो त्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदंसिहि // 28 / 2 / / वस्तु स्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाले जिन भगवान् ने ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बताया है। नस्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं // 28 / 26 / / सम्यग्दर्शन के अभाव में चारित्र सम्यक नहीं हो सकता। नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणान हुंति चरणगुणा। अगुणिस्स णस्थि मोक्खो, नस्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं // 28 / 30 / / सम्यग्दर्शन के अभाव में समीचीन ज्ञान प्राप्त नहीं होता, ज्ञान के अभाव में चारित्र के गुण नहीं होते, गुणों के अभाव में मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के अभाव में निर्वाण सम्पूर्ण प्रशान्त दशा प्राप्त नहीं होती। नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाई, तवेण परिसुज्झई // 28 // 35 // ज्ञान से भावों का सम्यग् बोध होता है, दर्शन से श्रद्धा होती है चारित्र से कर्मों का निरोध होता है और तप से प्रात्मा निर्मल होती है। सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयइ // 26 / 8 / / सामायिक की साधना से पापकारी प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है / खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ // 26 // 17 // क्षमापणा से आत्मा में प्रसन्नता की अनुभूति होती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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