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________________ 682] [उत्तराध्ययनसूत्र करे, दुसरे चार वर्षों में उपवास, वेला, तेला प्रादि तप करे / पारणे के दिन सभी कल्पनीय वस्तुएँ ले सकता है / तृतीय वर्षचतुष्क में दो वर्ष तक एकान्तर तप करे, पारणा में प्रायम्बिल (ग्राचाम्ल) करे / तत्पश्चात् यानी 11 वें वर्ष में वह 6 महीने तक तेला, चौला, पंचौला आदि कठोर (उत्कट) तप न करे / फिर दूसरे 5 महीने में वह नियम से तेला, चौला प्रादि उत्कट तप करे। इस ग्यारहवें वर्ष में वह परिमित-थोड़े ही प्रायम्बिल (प्राचाम्ल) करे / बारहवें वर्ष में तो लगातार ही आयम्बिल करे. जो कि कोटिसहित हों। तत्पश्चात् एक मास या पन्द्रह दिन पहले से ही भक्तप्रत्याख्यान (चतुविध आहार त्याग-संथारा) करे अर्थात् अन्त में प्रारम्भादि त्याग कर सबसे क्षमायाचना कर अन्तिम पाराधना करे / ' मरणविराधना-मरणयाराधना : भावनाएँ 256. कन्दप्पमाभियोग किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च / एयाओ दुग्गईओ मरणम्मि विराहिया होन्ति // [256] कान्दपी, पाभियोगी, किल्विषिकी, मोही और आसुरी भावनाएँ दुर्गति में ले जाने वाली हैं / मृत्यु के समय में ये संयम की विराधना करती हैं। 257. मिच्छादसणरत्ता सनियाणा हु हिंसगा। ____ इय जे मरन्ति जीवा तेसि पुण दुल्लहा बोहो / {257] जो जीव (अन्तिम समय में) मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, निदान से युक्त और हिंसक होकर मरते हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ होती है / 258. सम्मईसणरत्ता अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा। ___ इय जे मरन्ति जीवा सुलहा तेसि भवे बोही। [258] (अन्तिम समय में) जो जीव सम्यग्दर्शन में अनुरक्त, निदान से रहित और शुक्ललेश्या में अवगाढ (प्रविष्ट) होकर मरते हैं, उन्हें बोधि सुलभ होती है। 259. मिच्छादसणरत्ता सनियाणा कण्हलेसमोगाढा। इय जे मरन्ति जीवा तेसि पुण दुल्लहा बोही / [256} जो जीव (अन्तिम समय में) मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, निदान-सहित और कृष्णलेश्या में अवगाढ (प्रविष्ट) होकर मरते हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ होती है / 260. जिणवयणे अणुरत्ता जिणवयणं जे करेन्ति भावेण / अमला असंकिलिट्ठा ते होन्ति परित्तसंसारी // [260] जो (अन्तिम समय तक) जिनवचन में अनुरक्त हैं और जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं; वे निर्मल और रागादि से असंक्लिष्ट होकर परीत-संसारी (परिमित संसार वाले) होते हैं। 1. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 4, पृ. 940-942 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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