________________ 542] [उत्तराध्ययनसूत्र विनय के परिणाम-ज्ञानप्राप्ति, प्राचारविशुद्धि, सम्यग् आराधना आदि। वेयावृत्य के परिणाम-चित्तसमाधि, ग्लानि का प्रभाव, प्रवचन-वात्सल्य आदि / स्वाध्याय के परिणाम -प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्टसंवेगोत्पत्ति, प्रवचन की अविच्छिन्नता, अतिचारशुद्धि, संदेहनाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव अादि / ध्यान के परिणाम-कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से पीड़ित न होना, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास प्रादि शरीर को प्रभावित करने वाले कष्टों से बाधित न होना, ध्यान के सुपरिणाम हैं / व्युत्सर्ग के परिणाम–निर्ममत्व, निरहंकारता, निर्भयता, जीने के प्रति अनासक्ति, दोषों का उच्छेद, मोक्षमार्ग में सदा तत्परता आदि / ' 1. प्रायश्चित्त : स्वरूप और प्रकार 31. आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु वसविहं / __ जे भिक्खू वहई सम्मं पायच्छितं तमाहियं / / 31] पालोचनाह आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त है, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से वहन (पालन) करता है, उसे प्रायश्चित्ततप कहा गया है। विवेचन-प्रायश्चित्त के लक्षण-(१) प्रात्मसाधना की दुर्गम यात्रा में सावधान रहते हुए भो कुछ दोष लग जाते हैं / उनका परिमार्जन करके प्रात्मा को पुनः निर्दोष-विशुद्ध बना लेना प्रायश्चित्त है / (2) प्रमादजन्य दोषों का परिहार करना प्रायश्चित्ततप है / (3) संवेग और निर्वद से युक्त मुनि अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है, वह प्रायश्चित्त तप है। (4) प्राय: के चार अर्थ होते हैं--पाप (अपराध), साधूलोक, अथवा प्रचुररूप से तथा तपस्या / अत: प्रायश्चित्त के अर्थ क्रमशः इस प्रकार होते हैं--प्राय:-पाप अथवा अपराध का चित्त-शोधन प्रायश्चित्त, प्रायः–साधुलोक का चित्त जिस क्रिया में हो, वह प्रायश्चित्त / प्रायः-लोक अर्थात् जिसके द्वारा साधर्मी और संघ में स्थित लोगों का मन (चित्त) अपने (अपराधी के) प्रति शुद्ध हो जाए, उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित्त कहते हैं / अथवा प्रायः अर्थात्-प्रचुर रूप से जिस अनुष्ठान से निर्विकार चित्त बोध हो जाए, वह प्रायश्चित है, अथवा प्राय :- तपस्या, चित्तनिश्चय / निश्चय युक्त तपस्या को प्रायश्चित्त कहते हैं / 1. (क) उत्तरा. अ. 30 मुलपाठ गा. 28-29 (ख) तत्त्वार्य श्रुतसागरीया वृत्ति, अ. 9922,23,24,25,26 2. (क) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) टिप्पण, पृ. 454 (ख) 'प्रमाददोषपरिहार: प्रायश्चित्तम् / ' - सर्वार्थ सिद्धि 9 / 20 / 439 (ग) धवला 1315.4 / 26 कयावराहेण ससंबेय-निवेएणा सगावराहणिरायरणठं जमणाणं कीरदि तप्पायच्छित्त णाम तवोकम्म / (घ) 'प्राय: पापं विजानीयात् चित्तं तस्य विशोधनम् / ' -राजवातिक 9 / 22 / 1 (ङ) प्रायस्य-साधुलोकस्य यस्मिन्कर्म णि चित्तं-शुद्धिः तत्प्रायश्चित्तम् / .-वही, 9 / 22 / 1 (च) प्रायः-प्राचर्येण निर्विकारं चितं-बोधः प्रायश्चित्तम् / -नियमसार ता. वृ. 113 (छ) “प्रायो लोकस्तस्य चित्तं, मनस्तच्छुद्धिकृत् क्रिया / प्राये तपसि वा चित्तं-निश्चयस्तन्निरुच्यते // " --अनगारधर्मामृत 7137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org