________________ [उत्तराध्ययनसून लोगपईवस्स : अर्थ लोकान्तर्गत समस्त वस्तुओं के प्रकाशक होने से प्रदीप के समान / ' केसी कुमारसमणे--(१) कुमारावस्था अर्थात् अपरिणीत अवस्था में चारित्र ग्रहण करके बने हुए श्रमण / (2) अथवा केशी कुमार नामक श्रमण-तपस्वी / ' नयरमंडलो : नगरमण्डले--(१) नगर के निकट या नगर के परिसर में / सी संघसमाउलो--शिष्यों के समूह से परिवृत-समायुक्त / 'जिणे' के द्वितीय बार प्रयोग का प्रयोजन-प्रस्तुत प्रथम गाथा में 'जिन' शब्द का दो बार प्रयोग विशेष प्रयोजन से हुअा है / द्वितीय बार प्रयोग भगवान् पार्श्वनाथ का मुक्तिगमन सूचित करने के लिए हुआ है, इसलिए यहाँ जिन का अर्थ है--जिन्होंने समस्त कर्मशत्रुओं को जीत लिया था, वह / अर्थात्- उस समय भगवान महावीरस्वामी चौवीसवें तीर्थकर के रूप में साक्षात् विचरण करते थे, भगवान् पार्श्वनाथ मोक्ष पहुँच चुके थे। भगवान् महावीर और उनके शिष्य गौतम : संक्षिप्त परिचय 5. अह तेणेव कालेणं धम्मतिस्थयरे जिणे / भगवं वद्धमाणो त्ति सव्वलोगम्मि विस्सुए। [5] उसी समय धर्मतीर्थ के प्रवर्तक, जिन (रागद्वेषविजेता) भगवान् वर्धमान (महावीर) विद्यमान थे, जो समग्र लोक में प्रख्यात थे। 6. तस्स लोगपईक्स्स आसि सोसे महायसे / भगवं गोयमे नाम विज्जा-चरणपारगे // [6] उन लोक-प्रदीप (भगवान) वर्धमान स्वामी के विद्या (ज्ञान) और चारित्र के पारगामी, महायशस्वी भगवान् गौतम (इन्द्रभूति) नामक शिष्य थे / 7. बारसंगविऊ बुद्ध सीस-संघ-समाउले / गामाणुगामं रोयन्ते से वि सावस्थिमागए / [7] वे बारह अंगों (श्रुत-द्वादशांगी) के ज्ञाता और प्रबुद्ध गौतम भी शिष्यवर्ग सहित ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए। 8. कोढगं नाम उज्जाणं तम्मी नयरमण्डले / ___ फासुए सिज्जसंथारे तस्थ वासमुवागए। 1. 'लोके तद्गतसमस्तवस्तु प्रकाशकतया प्रदीप इव लोकप्रदीपस्तस्य / ----, उत्तरा. प्रिय शिनीटीका भा. 3. पृ. 888 2. (क) कुमारो हि अपरिणीततया कुमारत्वेन एव श्रमणः संग्रहीतचारित्र: कुमारश्रमणः / -बृहद वृत्ति, पत्र 498 (ख) कुमारोऽपरिणीततया, श्रमणश्च तपस्वितया, बाल ब्रह्मचारी अत्युग्रतपस्वी चेत्यर्थः / --उत्तरा. प्रियदशिनीटीका भा. 3, पृ.८८९ 3. शिष्यसंघसमाकुल:--शिष्यवर्गसहितः / -बृहद्वृत्ति, पत्र 498 4. वहद्वत्ति, पत्र 498 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org