________________ बीसवाँ अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय] [335 निह्नव आदि भी बाह्य दृष्टि से संयमी हो सकते हैं, अत: 'सुसमाहित' विशेषण और जोड़ा गया, अर्थात्-वह संयत होने के साथ-साथ सम्यक् मनःसमाधान-सम्पन्न थे।' प्रच्चंतपरमो अउलो रूवविम्हओ--'राजा को उनके रूप के प्रति अत्यधिक अतुल–असाधारण विस्मय हुअा।' वर्ण और रूप में अन्तर–वर्ण का अर्थ है सुस्निग्धता या गोरा, गेहुंआ आदि रंग और रूप कहते हैं—प्राकार, (प्राकृति) एवं डीलडौल को / वर्ण और रूप से 'व्यक्तित्व' जाना जाता है।' असंगया-असंगता का अर्थ---निःस्पृहता या अनासक्ति है / / चरणवन्दन के बाद प्रदक्षिणा क्यों ?-प्राचीनकाल में पूज्य पुरुषों के दर्शन होते ही चरणों में वन्दना और फिर साथ-साथ ही उनकी प्रदक्षिणा की जाती थी। इस विशेष परिपाटी को बताने के लिए यहाँ दर्शन, वन्दन और प्रदक्षिणा का क्रम अंकित है। ___राजा की विस्मययुक्त जिज्ञासा का कारण-श्रेणिक राजा को उक्त मुनि को देखकर विस्मय तो इसलिए हुआ कि एक तो वे मुनि तरुण थे, तरुणावस्था भोगकाल के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु उस अवस्था में कदाचित् कोई रोगादि हो या संयम के प्रति अनुद्यत हो तो कोई आश्चर्य नहीं होता, किन्तु यह मुनि तरुण थे, स्वस्थ थे, समाधि-सम्पन्न थे और श्रमणधर्मपालन में समुद्रत थे, यही विस्मय राजा की जिज्ञासा का कारण बना / अर्थात्-भोगयोग्य काल (तारुण्य) में जो आप प्रवजित हो गए हैं, मैं इसका कारण जानना चाहता है।" मुनि और राजा के सनाथ-अनाथ सम्बन्धी उत्तर-प्रत्युत्तर 9. अणाहो मि महाराय ! नाहो मज्श न बिज्जई। अणुकम्पगं सुहिं वावि कंचि नाभिसमेमऽहं / / [6] (मुनि)-महाराज ! मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई नाथ नहीं है / मुझ पर अनुकम्पा करने वाला या सुहृद् (सहृदय) मुझे नहीं मिला। 10. तओ सो पहसिओ राया सेणिो मगहाहिवो। एवं ते इड्ढिमन्तस्स कहं नाहो न विज्जई ? [10] (राजा)-यह सुनकर मगधनरेश राजा श्रेणिक जोर से हंसता हुआ वोला-इस प्रकार ऋद्धिसम्पन्न-ऋद्धिमान् (वैभवशाली) आपका कोई नाथ कैसे नहीं है ? --- - -- ------ ----- 1. 'साधुः सर्वोऽपि शिष्ट उच्यते, तद्व्यवच्छेदार्थं संयतमित्युक्त, सोऽपि च बहिःसंयमवाग्निलवादिरपि स्यादिति सुष्ठ समाहितोमनःसमाधानवान् सुसमाहितस्तमित्युक्तम् / " -बृहद्वृत्ति, पत्र 472 'वर्ण : सूस्निग्धो मौरतादिः, रूपम-आकारः। -बहदवत्ति, पत्र 473 3. (क) वही, पत्र 473 (ख) उत्तरा. अनुवाद विवेचन (मुनि नथमल), भा. 1, पृ. 262 4. बृहद्वृत्ति, पत्र 473 5. वही, पत्र 473 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org