________________ विंसइमं अज्झयणं : वीसवाँ अध्ययन महानियंठिज्ज : महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन का प्रारम्भ 1. सिद्धाणं नमो किच्चा संजयाणं च भावओ। अत्थधम्मगइं तच्चं अणुट्टि सुणेह मे // [1] (सुधर्मास्वामी)--(हे शिष्य ! ) सिद्धों और संयतों को भावपूर्वक नमस्कार कर मैं अर्थ (-मोक्ष) और धर्म (रत्नत्रयरूप धर्म के स्वरूप) का बोध कराने वाली तथ्यपूर्ण अनुशिष्टि (-शिक्षा) का प्रतिपादन करता हूँ, उसे मुझ से सुनो। विवेचन-सिद्धाणं नमो किच्चा०- यहाँ अध्ययन के प्रारम्भ में सिद्धों (जिनके अन्तर्गत भाषक-सिद्धरूप अर्हन्त भी आ जाते हैं) और संयतों (जिनके अन्तर्गत समस्त सावध प्रवृत्तियों से विरत प्राचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु-साध्वीगण आ जाते हैं) को नमस्कार मंगलाचरण के लिए है / सिद्ध का अर्थ है-सित अर्थात्-बद्ध अष्टविध कर्म, जिनके ध्मात अर्थात्-भस्मसात् हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं। अत्थधम्मगइं तच्चं-मुमुक्षुओं या हितार्थियों द्वारा जिसकी अभिलाषा की जाए, वह अर्थ (मोक्ष या साध्य) तथा धर्म सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म। गति का अर्थ है- (दोनों के) स्वरूप का ज्ञान कराने वाला तथ्य ; अनुशासन-शिक्षा / ' मुनिदर्शनानन्तर श्रेरिणक राजा की जिज्ञासा 2. पभूयरयणो राया सेणिो मगहाहिवो। विहारजत्तं निज्जाओ मण्डिकुच्छिसि चेइए // [2] प्रचुर रत्नों से समृद्ध मगधाधिपति श्रेणिक राजा विहारयात्रा के लिए मण्डिकुक्षि नामक चैत्य (उद्यान) में नगर से निकला। 3. नाणादुमलयाइण्णं नाणापक्खिनिसेवियं / नाणाकुसुमसंछन्नं उज्जाणं नन्दणोवमं // [3] वह उद्यान विविध प्रकार के वृक्षों और लताओं से व्याप्त, नाना प्रकार के पक्षियों से परिसेवित एवं विभिन्न प्रकार के पुष्पों से भलीभांति आच्छादित था; (किं बहुना) वह नन्दनवन के समान था। 1. वृहद्वत्ति, पत्र 472 (क) सितं-बद्धमिहाष्टविधं कर्म, ध्मातं-भस्मसाद्भूतमेषामिति सिद्धाः / (ख) इत्थं पंचपरमेष्ठिरूयेष्टदेवतास्तवमभिधाय... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org