________________ में "एलइज्ज" नाम प्राप्त होता है। प्रस्तुत अध्ययन की प्रथम गाथा में भी 'एलयं' शब्द का ही प्रयोग हुआ है। उरभ्र और एलक, ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं, अतः ये दोनों शब्द आगम-साहित्य में पाये हैं। इनके अर्थ में कोई भिन्नता नहीं है। लोभ आठवें अध्ययन में लोभ की अभिवृद्धि का सजीव चित्रण किया गया है। लोभ उस सरिता की तेज धारा के सदृश है जो आगे बढ़ना जानती है, पीछे हटना नहीं। ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों द्रौपदी के चीर की तरह लोभ बढ़ता चला जाता है। लोभ को नीतिकारों ने पाप का बाप कहा है। अन्य कषाय एक-एक सदगुण का नाश करता है, पर लोभ सभी सद्गुणों का नाश करता है। क्रोध, मान, माया के नष्ट होने पर भी लोभ की विद्यमानता में वीतरागता नहीं आती। बिना वीतराग बने सर्वज्ञ नहीं बनता। कपिल केवली के कथानक द्वारा यह तथ्य उजागर हुआ है। कपिल के अन्तर्मानस में लोभ की बाढ़ इतनी अधिक प्रा गई थी कि उसकी प्रतिक्रियास्वरूप उसका मन विरक्ति से भर गया। वह सब कुछ छोड़कर निर्ग्रन्थ बन गया। एक बार तस्करों ने उसे चारों ओर से घेर लिया। कपिल मुनि ने संगीत की सुरीली स्वर-लहरियों में मधुर उपदेश दिया। संगीत के स्वर तस्करों को इतने प्रिय लगे कि वे भी उन्हीं के साथ गाने लगे। कपिल मुनि के द्वारा प्रस्तुत अध्ययन गाया गया था, इसलिए इस अध्ययन का नाम “कापिलीय' अध्ययन है। वादीवेताल शान्तिसूरि ने अपनी बहत्ति में इस सत्य को व्यक्त किया है / 120 जिनदासगणी महत्तर ने प्रस्तुत अध्ययन को 'ज्ञेय' माना है। 21 "अधुवे असासयंमि, संसारम्मि दुक्खपउराए' यह ध्रुव पद था, जो प्रत्येक गाथा के साथ गाया गया। कितने ही तस्कर तो प्रथम गाथा को सुनकर ही संबुद्ध हो गये। कितनेक दुसरी, तीसरी गाथा को सुनकर संबुद्ध हए / इस प्रकार 500 तस्कर प्रतिबुद्ध होकर मुनि बने। प्रस्तुत अध्ययन में ग्रन्थित्याग, संसार की असारता, कुतीथियों की अज्ञता, अहिंसा, विवेक, स्त्री-संगम प्रभृति अनेक विषय चर्चित हैं। कपिल स्वयं बुद्ध थे। उन्हें स्वयं ही बोध प्राप्त हुया था। आठवें अध्ययन में कहा गया है जो साधु लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र और अंगविद्या का प्रयोग करता है, वह साधु नहीं है। यही बात तथागत बुद्ध ने भी सुत्तनिपात में कही है। उदाहरण के लिए देखिए जे लक्खणं च सुविणं च, अंगविज्ज च जे पउंजन्ति / न हु ते समणा बुच्चन्ति, एवं आयरिएहिं अक्खाय // " --उत्तराध्ययन 8 / 13 119. अनुयोगद्वार, सूत्र 130 120. "..."""ताहे ताणवि पंचवि चोरसयाणि ताले कुति, सोऽवि मायति धुवगं, "अधुवे असासयंमि, संसारंमि दुक्खपउराए / किं णाम तं होज्ज कम्मयं, जेणाहं दुग्गई ण गच्छेज्जर // 1 // " एवं सम्वत्थ सिलोगन्तरे धुवर्ग गायति 'अधुवेत्यादि', तत्थ केइ पढमसिलोगे संबुद्धा, केइ बीए, एवं जाव पंचवि सया संबुद्धा पवतियत्ति / ........'"स हि भगवान् कपिलनामा..... धुवक सङ्गीतवान् / बृहद्वत्ति, पत्र 289 121. गेयं णाम सरसंचारेण, जधा काविलिज्जे-"अधुवे असासयंमि, संसारम्मि दुक्खपउराए / ...... न गच्छेज्जा।" -सूत्रकृतांगचूर्णि, पृष्ठ 7 [ 42 } Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org