________________ अग्नि आदि से आत्मघात करने का विधान है। क्योंकि वह उससे शुद्ध होता है। याज्ञवल्क्यस्मृति गौतमस्मृति'.", वशिष्ठस्मृति'.", आपस्तम्भीय धर्मसूत्र'.२, महाभारत'०३ प्रादि में इसी तरह से शुद्धि के उपाय बताये हैं / जिसके फलस्वरूप काशीकरवट, प्रयाग में अक्षयवट से कूदकर आत्महत्या करने की प्रधाएँ प्रचलित हई / इस प्रकार मृत्यूवरण को एक पवित्र और श्रेष्ठ धार्मिक आचरण माना गया / महाभारत के अनुशासनपर्व'०४ वनपर्व 05, मत्स्यपुराण' 06 में स्पष्ट वर्णन है--अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग या अनशन द्वारा देहत्याग करने पर ब्रह्मलोक अथवा मुक्ति प्राप्त होती है। प्रयाग, सरस्वती, काशी आदि तीर्थस्थलों में प्रात्मधात करने का विधान है। महाभारत में कहा हैवेदवचन या लोकवचन से प्रयाग में मरने का विचार नहीं त्यागना चाहिए। इसी प्रकार कर्मपुराण', पद्मपुराण'.६, स्कन्दपुराण''", मत्स्यपुराण'", ब्रह्मपुराण'१२ लिङ्गपुराण'१3 में स्पष्ट उल्लेख है कि जो इन स्थलों पर मृत्यु को वरण करता है, भले ही वह स्वस्थ हो या अस्वस्थ, मुक्ति को अवश्य ही प्राप्त करता है / वैदिकपरम्परा के ग्रन्थों में परस्पर विरोधी वचन प्राप्त होते हैं। कहीं पर आत्मघात को निकृष्ट माना है तो कहीं पर उसे प्रोत्साहन भी दिया गया है। कहीं पर जैनपरम्परा की तरह समाधिमरण का मिलता-जुलता वर्णन है। किन्तु जल-प्रवेश, अग्निप्रवेश, विषभक्षण, गिरिपतन, शस्त्राघात के द्वारा मरने का वर्णन अधिक है ! इस प्रकार मृत्यु के वरण में कषाय की तीव्रता रहती है। श्रमण भगवान् महावीर ने इस प्रकार के मरण को बालमरण कहा है। क्योंकि ऐसे मरण में समाधि का प्रभाव होता है / 98. सुरां पीत्वा द्विजो महोदग्निवर्णा सुरां पिबेत् / तया स काये निर्दग्धे मुच्यते किल्विषात्ततः / / -मनुस्मृति 11, 90, 91, 103, 104 99. याज्ञवल्क्यस्मृति 3, 248, 3-253 100. गौतमस्मृति 23, 1 101. (क) वशिष्ठस्मृति 20, 13-14 (ख) प्राचार्य-पुत्र-शिष्य-भार्यासु चैवम्। -वशिष्ठस्मृति 12-15 102. प्रापस्तंबीय धर्मसूत्र 19, 25, 1-2-3.4-5-6-7 103. महाभारत---अनुशासनपर्व, अ. 12 104. महाभारत-अनुशासनपर्व 25, 61-64 105. महाभारत–वनपर्व 85-83 .. 106. मत्स्यपुराण 186, 34-35 107. न वेदवचनात् तात ! न लोकवचनादपि / मातरुत्क्रमणायात प्रयागमरण प्रति / / -महाभारत, वनपर्व 85,83 108. कूर्मपुराण 1, 36, 147; 1, 373, 4 109. पद्मपुराण प्रादिकाण्ड 44-3, 1-16-14, 15 110. स्कन्दपुराण 22, 76 111. मत्स्यपुराण 186, 34-35 112. ब्रह्मपुराण 68, 75, 177, 16-17, 177, 25 113. लिङ्गपुराण 92, 168-169 [40] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org