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________________ तेरहवां अध्ययन : चित्र-सम्भूतीय] [217 23. न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ न मित्तबग्गा न सुया न बन्धवा। एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं // [23] ज्ञातिजन (जाति के लोग), मित्रवर्ग, पुत्र और बान्धव आदि उसके (मृत्यु के मुख में पड़े हुए मनुष्य के) दुःख को नहीं बाँट सकते। वह स्वयं अकेला ही दुःख का अनुभव करता (भोगता) है; क्योंकि कर्म कर्ता का ही अनुसरण करता है / 24. चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं / कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ परं भवं सुन्दर पावगं वा // [24] द्विपद (पत्नी, पुत्र आदि स्वजन), चतुष्पद (गाय, घोड़ा आदि चौपाये पशु), खेत,धर, धन (सोना-चाँदी आदि), धान्य (गेहूँ, चावल आदि) सभी कुछ (यहीं) छोड़ कर, केवल अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों को साथ लेकर यह पराधीन जीव, सुन्दर (देव-मनुष्य सम्बन्धी सुखद) अथवा असुन्दर (नरक-तिर्यञ्चसम्बन्धी दुःखद) परभव (दूसरे लोक) को प्रयाण करता है। 25. तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से चिईगयं डहिय उ पावगेणं ! भज्जा य पुत्ता वि य नायओ य दायारमन्नं अणुसंकमन्ति / [25] चिता पर रखे हुए (अपने मृत सम्बन्धी के जीवरहित) उस एकाकी तुच्छ शरीर को अग्नि से जला कर, स्त्री, पुत्र, अथवा ज्ञातिजन (स्वजन) दूसरे दाता (आश्रयदाता-स्वार्थसाधक) का अनुसरण करने लगते हैं किसी अन्य के हो जाते हैं। 26. उवणिज्जई जीवियमप्पमायं वण्णं जरा हरइ नरस्स राय ! पंचालराया ! वयणं सुणाहि मा कासि कम्माई महालयाई॥ [26] राजन् ! कर्म किसी भी प्रकार का प्रमाद (भूल) किये विना (क्षण-क्षण में प्रावीचिमरण के रूप में) जीवन को मृत्यु के निकट ले जा रहे हैं। वृद्धावस्था मनुष्य के वर्ण (शरीर की कांति) का हरण कर रही है। अतः हे पांचालराज ! मेरी बात सुनो, (पंचेन्द्रियवध आदि) महान् (घोर) पापकर्म मत करो। 27. अहंपि जाणामि जहेह साहू ! जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं / भोगा इमे संगकरा हवन्ति जे दुज्जया प्रज्जो ! अम्हारिसेहिं / [27] (चक्रवर्ती) हे साधो ! जिस प्रकार तुम मुझे इस (समस्त सांसारिक पदार्थों की अशरण्यता एवं अनित्यता आदि के विषय) में उपदेशवाक्य कह रहे हो, उसे मैं भी समझ रहा हूँ कि ये भोग संगकारक (आसक्ति में बांधने वाले) होते हैं, किन्तु आर्य! वे हम जैसे लोगों के लिए तो अत्यन्त दुर्जय हैं। 28. हथिणपुरम्मि चित्ता! दळूणं नरवई महिड्ढियं / कामभोगेसु गिद्धणं नियाणमसुहं कडं / / [28] चित्र ! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धिसम्पन्न चक्रवर्ती (सनत्कुमार) नरेश को देखकर मैंने कामभोगों में आसक्त होकर अशुभ निदान (कामभोग-प्राप्ति का संकल्प) कर लिया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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