________________ 210] [उत्तराध्ययनसूत्र से राजा की चेतना लौट आई। पूर्वजन्म के भाई की खोज के लिए महामात्य वरधनु के परामर्श से चक्रवर्ती ने निम्नोक्त श्लोकार्द्ध रच डाला "प्रास्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा / " ___ इस श्लोकार्द्ध को प्रचारित कराते हुए राजा ने घोषणा करवाई कि 'जो इस श्लोकार्द्ध की पूर्ति कर देगा, उसे मैं अपना प्राधा राज्य दे दूंगा।' पर किसे पता था उस रहस्य का, जो इस श्लोक के उत्तरार्द्ध की पूर्ति करता ? श्लोक का पूर्वार्द्ध प्रायः प्रत्येक नागरिक की जबान पर था। चित्र का जीव, जो पुरिमताल नगर में धनसार सेठ के यहाँ था, युवा हुया / एक दिन उसे भी पूर्वजन्म का स्मरण हुआ और वह मुनि बन गया। एक बार विहार करता हुआ वह काम्पिल्य-नगर के उद्यान में आकर ध्यानस्थ खड़ा हो गया। वहाँ उक्त श्लोक का पूर्वार्द्ध रहट को चलाने वाला जोर-जोर से बोल रहा था। मुनि ने उसे सुना तो उसका उत्तरार्द्ध पूरा कर दिया एषा नौ षष्ठिका जातिः, अन्योऽन्याभ्यां वियुक्तयोः / दोनों चरणों को उसने एक पत्ते पर लिखा और आधा राज्य पाने की खुशी में तत्क्षण चक्रवर्ती के पास पहुँचा और एक ही सांस में पूरा श्लोक उन्हें सुना दिया। सुनते ही चक्रवर्ती स्नेहवश मूच्छित हो गए। इस पर सारी राजसभा क्षुब्ध हो गई और कुछ सभासद् सम्राट को मूर्छित करने के अपराध में उसे पीटने पर उतारू हो गए। इस पर वह रहट चलाने वाला बोला-'मैंने इस श्लोक की पूर्ति नहीं की है / रहट के पास खड़े एक मुनि ने की है / ' अनुकूल उपचार से राजा की मूर्छा दूर हुई। होश में आते ही सम्राट् ने सारी जानकारी प्राप्त की। पूर्ति का भेद खुलने पर ब्रह्मदत्त प्रसन्नतापूर्वक अपने राजपरिवार-सहित मुनि के दर्शन के लिए उद्यान में पहुँचे। मुनि को देखते ही ब्रह्मदत्त वन्दना कर सविनय उनके पास बैठा। अब वे दोनों पूर्व जन्मों के भाई सुख-दुःख के फल-विपाक की चर्चा करने लगे। मुनि ने इस छठे जन्म में दोनों के एक दूसरे से पृथक् होने का कारण ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती (सम्भूत के जीव) को बताया। साथ ही यह भी समझाने का प्रयत्न किया कि पूर्वजन्म के शुभकर्मों से हम यहाँ आए हैं, तुम्हें अगर इस वियोग को सदा के लिए मिटाना है तो अपनी जीवनयात्रा को अब सही दिशा दो। अगर तुम कामभोगों को नहीं छोड़ सकते तो कम-से-कम आर्य कर्म करो, धर्म में स्थिर हो कर सर्वप्राणियों पर अनुकम्पाशील बनो, जिससे तुम्हारी दुर्गति तो न हो। परन्तु ब्रह्मदत्त को मुनि का एक भी वचन नहीं सुहाया। उलटे, उसने मुनि को समस्त सांसारिक सुखभोगों के लिए बार-बार आमंत्रित किया। किन्तु मुनि ने भोगों की असारता, दुःखावहता, सुखाभासता, अशरणता तथा नश्वरता समझाई। समस्त सांसारिक रिश्ते-नातों को झठे, असहायक और अशरण्य बताया। ब्रह्मदत्त चक्री ने उस हाथी की तरह अपनी असमर्थता प्रकट की, जो दल-दल में फंसा हुआ है, किनारे का स्थल देख रहा है, किन्तु वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org