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________________ 206] [ उत्तराध्ययनसूत्र भावशुद्धिरूप आध्यात्मिक शौच (शुद्धि) को छोड़ कर जलादि शौच (बाह्यशुद्धि) को स्वीकार करना मूढजनों को चक्कर में डालने वाला है। महाजयं जन्नसिट्ट—व्याख्या कर्मशत्रुओं को परास्त करने की प्रक्रिया होने से जो महान् जयरूप है, अथवा जिस प्रकार महाजय हो उस प्रकार से यज्ञ करते हैं। श्रेष्ठ यज्ञ को कुशलजन श्रेष्ठ स्विष्ट भी कहते हैं। पसत्थं--प्रशस्त : भावार्थ-जीवोपघातरहित होने से यह यज्ञ सम्यक्चारित्री विवेकी ऋषियों के द्वारा प्रशंसनीय इलाघनीय है। बंभे संतितित्थे : दो रूप : दो व्याख्या ब्रह्मचर्य शान्तितीर्थ है / क्योंकि उस तीर्थ का सेवन करने से समस्त मलों के मूल राग-द्वेष उन्मूलित हो जाते हैं। उनके उन्मूलित हो जाने पर मल की पुन: कदापि संभावना नहीं है / उपलक्षण से सत्यादि का ग्रहण करना चाहिए / जैसे कि कहा है 'ब्रह्मचर्येण, सत्येन, तपसा संयमेन च / मातंगर्षिर्गतः शुद्धि, न शुद्धिस्तीर्थयात्रया // ' ब्रह्मचर्य, सत्य, तप और संयम से मातंगऋषि शुद्ध हो गए थे, तीर्थयात्रा से शुद्धि नहीं होती। अथवा ब्रह्म का अर्थ अभेदोपचार से ब्रह्मवान् साधु है, सन्ति का अर्थ है विद्यमान हैं / आशय यह है कि 'साधु मेरे तीर्थ हैं।' कहा भी है-- 'साधूनां दर्शनं श्रेष्ठं, तीर्थभूता हि साधवः।' 'साधुओं का दर्शन श्रेष्ठ है, क्योंकि साधु तीर्थभूत हैं।' अणाविले अत्तपसन्नलेसे—अनाविल का अर्थ है-मिथ्यात्व और तीन गुप्ति की विराधनारूप कलुषता से रहित / 'अत्तपसन्नलेसे' के दो रूप-प्रात्मप्रसन्नलेश्य:--जिसमें आत्मा (जीव) की प्रसन्नः अकलुषित पोतादिलेश्याएँ हैं, वह, अथवा आप्तप्रसन्नलेश्य:-दो अर्थ-प्राणियों के लिए प्राप्त –इह-परलोकहितकर प्रसन्न लेश्याएँ जिसमें हों, अथवा जिसने प्रसन्नलेश्याएँ प्राप्त की हैं, वह / ये दोनों विशेषण ह्रद और शान्तितीर्थ के हैं।' / / बारहवाँ : हरिकेशीय अध्ययन समाप्त / / 1. बृहद्वत्ति, पत्र 371 से 373 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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