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________________ 198] [उसराध्ययनसूत्र 21. देवाभिओगेण नियोइएणं दिन्ना मु रन्ना मणसा न झाया। नरिन्द-देविन्दऽभिवन्दिएणं जेणऽम्हि वन्ता इसिणा स एसो॥ [21] (भद्रा-) देव (यक्ष) के अभियोग (बलवती प्रेरणा) से प्रेरित (मेरे पिता कौशलिक) राजा ने मुझे इन मुनि को दी थी, किन्तु मुनि ने मुझे मन से भी नहीं चाहा और मेरा परित्याग कर दिया / (ऐसे निःस्पृह) तथा नरेन्द्रों और देवेन्द्रों द्वारा अभिवन्दित (पूजित) ये वही ऋषि हैं / 22. एसो हु सो उग्गतवो महप्पा जिइन्दिओ संजओ बम्भयारी। जो मे तया नेच्छइ दिज्जमाणि पिउणा सयं कोसलिएण रना / [22] ये वही उग्रतपस्वी हैं, महात्मा हैं, जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी हैं, जिन्होंने मेरे पिता राजा कोशलिक के द्वारा उस समय मुझे दिये जाने पर भी नहीं चाहा।" 23. महाजसो एस महाणुभागो घोरवओ घोरपरक्कमो य / ___मा एयं हीलह अहीलणिज्जं मा सव्वे तेएण भे निद्दहेज्जा / / [23] ये ऋषि महायशस्वी हैं, महानुभाग हैं, घोरव्रती हैं और घोरपराक्रमी हैं। ये अवहेलना (अवज्ञा) के योग्य नहीं हैं, अतः इनकी अवहेलना मत करो। ऐसा न हो कि कहीं यह तुम सबको अपने तेज से भस्म कर दें। विवेचन-कोसलियस्स-कोशला नगरी के राजा कोशलिक की। 'उग्गतवो' प्रादि विशिष्ट शब्दों के अर्थ-उपगतवो-कर्मशत्रुओं के प्रति उत्कट-दारुण अनशनादि तप करने वाला उत्कटतपस्वी / मद्रप्पा-महात्मा-विशिष्ट वीर्योल्लास के कारण जिसकी आत्मा प्रशस्त-महान है, वह / महाजसोजिसकी कीर्ति असीम है–त्रिभुवन में व्याप्त है। महाणुभागो-जिसका अनुभाव-सामर्थ्य-प्रभाव महान है, अर्थात----जिसमें महान् शापानुग्रह-सामर्थ्य है अथवा जिसे अचिन्त्य शक्ति प्राप्त है। घोरव्वओ अत्यन्त दुर्धर महावतों को जो धारण किये हुए है। घोरपरक्कमो-जिसमें कषायादि विजय के प्रति अपार सामर्थ्य है / ' यक्ष द्वारा कुमारों की दुर्दशा और भद्रा द्वारा पुनः प्रबोध 24, एयाइं तीसे वयणाइ सोच्चा पत्तीइ भद्दाइ सुहासियाई। इसिस्स वेयावडियट्ठयाए जक्खा कुमारे विणिवारयन्ति / [24] (रुद्रदेव पुरोहित की) पत्नी उस भद्रा के सुभाषित वचनों को सुन कर तपस्वी ऋषि को वैयावत्य (सेवा) के लिए (उपस्थित) यक्षों ने उन ब्राह्मण कुमारों को भूमि पर गिरा दिया (अथवा मुनि को पीटने से रोक दिया)। 25. ते घोररूवा ठिय अन्तलिखे असुरा तहिं तं जणं तालयन्ति / ते भिन्नदेहे रहिरं वमन्ते पासित्तु भद्दा इणमाहु भुज्जो॥ 1. (क) महाणुभागो-महान्-भागो-अचिन्त्यशक्तिः यस्य स महाभागो महप्पभावो त्ति ।-विशेषा. भाष्य 1063 (ख) अणुभावोणाम शापानुग्रहसामर्थ्य / -उत्तरा. चूणि, पृ. 208 (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र 365 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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