________________ दशम अध्ययन : द्रमपत्रक] [ 165 विवेचन-मनुष्यजन्म को दुर्लभता के 12 कारण-प्रस्तुत गाथाओं के द्वारा मनुष्यजन्म की दुर्लभता के बारह कारण बताए गए हैं—(१) पुण्यरहित जीव द्वारा मनुष्यगति-विघातक कर्मों का क्षय किये विना चिरकाल तक मनुष्यजीवन पाना दुर्लभ है, (2 से 5) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के जीवों में उसी पर्याय में असंख्यातकाल तक बार-बार जन्ममरण, (6) वनस्पतिकाय के जीवों में अनन्तकाल तक बार-बार जन्ममरण, (7-8-6) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्कृष्टतः संख्यातकाल की अवधि तक रहना, (10) पंचेन्द्रिय अवस्था में 7-8 भवों तक निरन्तर जन्मग्रहण, (11-12) देवगति और नरकगति के जीवों में दीर्घ आयुष्य वाला एक-एक जन्मग्रहण, और (12) प्रमादबहुल जीव द्वारा शुभाशुभ कर्मों के कारण चिरकाल तक भवभ्रमण / मनुष्यजीवन की दुर्लभता के इन 12 कारणों को समझाकर प्राप्त मनुष्य जीवन में धर्माराधना करने में समयमात्र का भी प्रमाद न करने को प्रेरणा दी गई है।' भवस्थिति और कायस्थिति–जीव का अमुक काल तक एक जन्म में जीना भवस्थिति है और मृत्यु के पश्चात् उसी जीवनिकाय में पुन:-पुनः उत्पन्न होना कायस्थिति है / देव और नारक मृत्यु के पश्चात् अगले जन्म में पुनः देव और नारक नहीं होते / अतः उनकी भवस्थिति ही होती है, कायस्थिति नहीं / अथवा दोनों का काल बराबर है / तिर्यञ्च और मनुष्य मर कर अगले जन्म में पुनः तिर्यञ्च और मनुष्य के रूप में जन्म ले सकते हैं। इसलिए उनकी काय स्थिति होती है / पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के जोव लगातार असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल तक तथा वनस्पतिकाय के जीव अनन्तकाल तक अपने-अपने उन्हीं स्थानों में मरते और जन्म लेते रहते हैं / द्वि-त्रिचतुरिन्द्रिय जीव हजारों वर्षों तक अपने-अपने जीवनिकायों में जन्म ले सकते हैं और पंचेन्द्रिय जीव लगातार 7-8 जन्म ग्रहण कर सकते हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने इन गाथाओं में जीवों की कायस्थिति का निर्देश किया है। मनुष्यजन्मप्राप्ति के बाद भी कई कारणों से धर्माचरण की दुर्लभता बताकर प्रमाद- . त्याग की प्रेरणा 2-16. लढू ण वि माणुसत्तणं प्रारिप्रत्तं पुणरावि दुल्लहं / बहवे दसुया मिलेक्खुया समयं गोयम ! मा पमायए॥ [16] (दुर्लभ) मनुष्यजन्म पाकर भी आर्यत्व का पाना और भी दुर्लभ है; (क्योंकि मनुष्य होकर भी) बहुत-से लोग दस्यु (चोर, लुटेरे आदि) और म्लेच्छ (अनार्य-असंस्कारी) होते हैं / इसलिए, गौतम ! समयमात्र का भी प्रमाद मत करो। ~ 17. लद्ध ण वि आरियत्तणं अहीणपंचिन्दियया हु दुल्लहा। विगलिन्दियया हु दोसई समयं गोयम ! मा पमायए / [17] आर्यत्व की प्राप्ति होने पर भी पांचों इन्द्रियों की परिपूर्णता (अविकलता) प्राप्त 1. उत्तराध्ययन मूलपाठ, अ. 10, गा. 4 से 15 तक 2. (क) स्थानांग. 2 / 3 / 85 : "दुविहा ठिती०"दोण्हं भवद्विती., दोहं काढिती.।" (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र 336 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org