________________ नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या [139 विवेचन–सरइ पोराणियं जाई पुराण जाति-आत्मवाद की दृष्टि से जन्म की परम्परा अनादि है, इसलिए इसे पूराणजाति कहा है, अर्थात पूर्वजन्म की स्मृति / इसे जातिस्मरणज्ञान कहते हैं, जो मतिज्ञान का एक भेद है / इसके द्वारा पूर्ववर्ती संख्यात जन्मों तक का स्मरण हो सकता है। भयवं : भगवान् : अनेक अर्थ–भग शब्द के अनेक अर्थ हैं, यथा--- ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः / धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षष्णां भग इतीङ्गना / / अर्थात् समग्र ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न, ये छह 'भग' कहलाते हैं / 'भग' से जो सम्पन्न हो वह भगवान् है / अन्यत्र अन्य अर्थ भी बतलाए गए हैं धैर्य, सौभाग्य, माहात्म्य, यश, सूर्य, श्रुत, बुद्धि, लक्ष्मी, तप, अर्थ, योनि, पुण्य, ईश, प्रयत्न और तनु / प्रस्तुत प्रसंग में 'भग' शब्द का अर्थ-बुद्धि, धैर्य या ज्ञान है / भगवान् का अर्थ हैबुद्धिमान्, धैर्यवान् या अतिशय ज्ञानवान् / अभिणिक्खमई-अभिनिष्क्रमण किया-घर से प्रवज्या के लिए निकला, दीक्षाग्रहण की / 3 एगंतमहिडिओ-एकान्त शब्द के चार अर्थ-(१) मोक्ष-जहाँ कर्मों का अन्त हो कर जीव एक अद्वितीय रहता हो, ऐसा स्थान मोक्ष ही है। (2) मोक्ष के उपायभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र भी एकान्त-एकमात्र अन्त–उपाय हैं / इनकी आराधना से जीवन्मुक्ति की प्राप्ति होती है। (3) एकान्त-द्रव्य से निर्जन उद्यान, श्मशानादि स्थान हैं / (4) भाव से एकान्त का अर्थ-मैं अकेला हैं, मैं किसी का नहीं हूँ, न मेरा कोई है, जिस-जिस पदार्थ को मैं अपना देखता हूँ, वह मेरा नहीं, दिखाई देता; इस भावना से मैं अकेला ही हूँ, ऐसा निश्चय एकान्त है / एकान्त को अधिष्ठित--- आश्रित / अभिणिक्खमन्तंमि-अभिनिष्क्रमण करने पर अर्थात् द्रव्य से-घर से निकलने पर, भावतः अन्तःकरण से कषायादि के निकाल देने पर। 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 306 (ख) 'जातिस्मरणं तत्त्वाभिनिबोधविशेषः' ---प्राचारांग 1 / 1 / 4 (ग) जातिस्मरणं तु नियमतः संख्येयान् / 2. भगशब्दो यद्यपि धैर्यादिष्वनेकार्थेषु वर्तते, यदुक्तम् 'धर्य-सौभाग्य-माहात्म्य-यशोऽर्कश्रत-धी-श्रियः / तपोऽर्थोऽपस्थ-पुण्येश-प्रयत्न-तनबो भगाः // —बृ. वृ., पत्र 307 3. अभिनिष्क्रमति-धर्माभिमूख्येन गहस्थपर्यायान्निर्गच्छति -बू. , पत्र 307 4. एगतत्ति---एकोऽद्वितीयः कर्मणामन्तो यस्मिन्निति एकान्तः / तत एकान्तो मोक्षः, तदुपाय—सम्यग्दर्शनाद्या सेवनात्" इहैव जीवन्मुक्त्यवाप्तेः / यद्वा एकान्तं द्रव्यतो विजनमुद्यानादि / भावतश्च–एकोऽहं न मे कश्चिद् नाहमन्यस्य कस्यचित् / तं तं पश्यामि यस्याऽहं नाऽसौ दृश्योऽस्ति यो मम // -बहद्वत्ति, पत्र 307. 5. बृहद्वत्ति, पत्र 307. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org