________________ अष्टम अध्ययन : कापिलीय [127 ताई—दो रूप : तीन अर्थ (1-2) तायो-त्रायो-(१) दुर्गति से आत्मा की जो रक्षा (-त्राण) करता है, अथवा (2) जो षट्काय का त्राता-रक्षक है। (3) तायो तादृक्-वैसा, उन (बुद्धादि) जैसा।' भोगामिसदोसविसण्णे--प्रामिष शब्द : अनेक अर्थों में- (1) वर्तमान में 'आमिष' का अर्थ 'मांस' किया जाता है। (2) प्राचीन काल में प्रासक्ति के हेतुभूत पदार्थों के अर्थ में आमिष शब्द प्रयक्त होता था। जैसे कि 'अनेकार्थकोष' में प्रामिष के 'फल, सुन्दर प्राकार, रूप, सम्भोग, लोभ और लंचा'-ये अर्थ मिलते हैं। पंचासकप्रकरण में आहार या फल आदि के अर्थ में इसका प्रयोग हमा है। बौद्धसाहित्य में भोजन, विषयभोग आदि अर्थों में 'आमिष' शब्द-प्रयोग हुपा है / यथाआमिष-संविभाग, आमिषदान, आदि / बुद्धिवोच्चत्थे-अर्थ और भावार्थ- (1) हित और निःश्रेयस में जिसकी विपरीत-बुद्धि है। (2) हित और निःश्रेयस में अथवा हित और निःश्रेयस सम्बन्धी बुद्धि-उनकी प्राप्ति की उपायविषयक मति हितनिःश्रेयसबुद्धि है / उसमें जो विपर्ययवान् है / बज्झइ-भावार्थ-बंध जाता है अर्थात्-~-श्लिष्ट हो (चिपक) जाता है / खेलमि-तीन रूप : तीन अर्थ—(१) श्लेष्म- कफ, (2) श्वेट या वेद-चिकनाई–श्लेष्म, (3) क्ष्वेल-थूक (निष्ठीवन)।४ अधीरपुरिसेहि-दो अर्थ--अधीर पुरुषों के द्वारा-(१) अबुद्धिमान् मनुष्यों के द्वारा, (2) असत्त्वशील पुरुषों द्वारा। संति सुव्वया-दो रूप : दो व्याख्या---(१)सन्ति सुव्रता:---सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान से अधिष्ठित होने से जिनके हिंसाविरमणादिव्रत शुभ या शुद्ध-निष्कलंक हैं / (२)शान्ति-सुव्रताः-शान्ति से उपलक्षित सुव्रत बाले / ' 1. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 291 (ख) उत्तराध्ययन (अंग्रेजी) पृ 307-308, पवित्र सन्त व्यक्ति प्रादि / (ग) दीघनिकाय, पृ. 58; विसुद्धिमग्गो, पृ. 180 2. (क) सहामिषेण पिशितरूपेण वर्तते इति सामिपः, (ख) फले सुन्दराकाररूपादौ संभोगे लोभलंचयोः / -अनेकार्थकोष, पृ. 1330 (ग) पंचासक प्रकरण 9 / 31 (घ) 'भोगाः- मनोज्ञाः शब्दादयः, ते च ते प्रामिषं चात्यन्तगृद्धिहेतुतया भोगामिषम् / ' -बृहद्वत्ति, पत्र 291 (ङ) 'भुज्यन्त इति भोगाः, यत्सामान्यं बहुभिः प्राध्यंते तद् आमिषम्, भोगा एवं आमिष भोगामिषम् / ' -उत्त. चूणि, पृ. 172 (च) बुद्धचर्या पृ. 102,432, इतिवृत्तक, पृ. 86. 3. (क) उत्त. चूणि, पृ. 172 (ख) बृहद्धृत्ति, पत्र 291 4. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 291 (ख) उत्तरा. (सरपंटियर), पृ. 308 (ग) तत्त्वार्थराजवार्तिक 3 / 36, पृ. 203 5. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 292 6. वहीं, पत्र 292 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org