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________________ सप्तम अध्ययन : अध्ययन-सार] 1111 ही मोटाताजा बनाने में लगा रहता है, उसकी भी दशा उस मेमने की-सी ही होती है। कामभोगासक्ति अन्तिम समय में पश्चात्तापकारिणी और घोर कर्मबन्ध के कारण नरक में ले जाने वाली होती है। * अल्प सुखों के लिए दिव्य सुखों को हार जाने वाले के लिए दो दृष्टान्त (1) एक भिखारी ने मांग-मांग कर हजार कार्षापण (बीस काकिणी का एक कार्षायण) एकत्रित किए। उन्हें लेकर वह घर की ओर चला / रास्ते में खाने-पीने की व्यवस्था के लिए एक कार्षापण को भुना कर काकिणियाँ रख लीं। उनमें से वह खर्च करता जाता / जब उसके पास उनमें से एक काकिणी बची तो आगे चलते समय वह एक स्थान पर उसे भूल पाया। कुछ दुर जाने पर उसे काकिणी याद आई तो अपने पास के कार्षापणों की नौली को कहीं गाड़ कर काकिणी को लेने वापस दौड़ा / लेकिन वहाँ उसे काकिणी नहीं मिली। जब निराश होकर वापिस लौटा तब तक कार्षापणों की नौली भी एक आदमी लेकर भाग गया। वह लुट गया / अपार पश्चात्ताप हुआ उसे / (2) चिकित्सक ने एक रोगी राजा को ग्राम खाना कुपथ्यकारक बताया, एक दिन वह राजा मंत्री के साथ वन-विहार करने गया। वहाँ ग्राम के पेड़ देख कर उसका मन ललचा गया। वह वैद्य के सुझाव को भूलकर स्वादलोलुपतावश मंत्री के मना करने पर भी ग्राम खा गया। ग्राम खाते ही राजा की मृत्यु हो गई। क्षणिक स्वादसूख के लिए राजा ने अपना अमूल्य जीवन एवं राज्य खो दिया।' इसी प्रकार जो मनुष्य थोड़े से सुख के लिए मानवीय कामभोगों में आसक्त हो जाता है, वह काकिणी के लिए कापिणों को खो देने वाले तथा अल्प प्राम्रस्वादसूख के लिए जीवन एवं राज्य को गँवा देने वाले राजा की तरह दीर्घकालीन दिव्य कामभोग-सुखों को हार जाता है। * दिव्य कामभोगों के समक्ष मानवीय कामभोग तुच्छ और अल्पकालिक हैं। दिव्य कामभोग समुद्र के अपरिमेय जल के समान हैं, जबकि मानवीय कामभोग कुश की नोक पर टिके हुए जलबिन्दु के समान अल्प एवं क्षणिक हैं / मनुष्यभव में सज्जनवत् प्रणधारी होना मनुष्यगतिरूप मूलधन की सुरक्षा है, व्रतधारी होकर देवगति पाना अतिरिक्त लाभ है और अज्ञानी-अव्रती रहना मूलधन को खोकर नरक-तिर्यञ्चगति पाना है। इस पर तीन वणिकपुत्रों का दृष्टान्त--पिता के आदेश से तीन वणिक्पुत्र व्यवसायार्थ विदेश गए। उनमें से एक बहुत धन कमा कर लौटा, दूसरा पुत्र मूल पूजी लेकर लौटा और तीसरा जो पूजी लेकर गया था, उसे भी खो आया / * अन्तिम गाथाओं में कामभोगों से अनिवृत्ति और निवृत्ति का परिणाम तथा बालभाव को छोड़ कर पण्डितभाव को अपनाने का निर्देश किया गया है। CO 1. बृहद वृत्ति, पत्र 276-277 2. (क) वही, पत्र 278-279 (ख) पोरब्भे य कागिणी अम्बए य ववहार सागरे चेव / पंचेए दिट्रता उरभिज्जम्मि अज्झयणे // -- उत्त. नियुक्ति, गा. 247 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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