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________________ पंचम अध्ययन : अकाममरणीय अध्ययन-सार * इस अध्ययन का नाम 'अकाममरणीय' है। नियुक्ति के अनुसार इसका दूसरा नाम 'मरण विभक्ति' है।' * संसारो जीव की जीवनयात्रा के दो पड़ाव हैं—जन्म और मरण / जन्म भी अनन्त-अनन्त बार होता है और मरण भी। परन्तु जिसे जीवन और मृत्यु का यथार्थ दृष्टिकोण, यथार्थ स्वरूप समझ में नहीं आता, वह जीवित भी मृतवत् है और उसकी मृत्यु सुगतियों और सुयोनियों में पुनः पुन: जन्म-मरण के बदले अथवा जन्म-मरण की संख्या घटाने की अपेक्षा कुगतियों और कुयोनियों में पूनः-पुनः जन्म-मरण के बीज बोती है तथा जन्म-मरण की संख्या अधिक बढ़ाती रहती है / परन्तु जो जीवन और मृत्यु के रहस्य और यथार्थ दृष्टिकोण को भलीभाँति समझ लेता है और उसी प्रकार जीवन जीता है, जिसे न जीने का मोह होता है और न ही मृत्यु का गम होता है, जो जीवन और मृत्यु में सम रह कर जीवन को तप, त्याग, व्रत, नियम, धर्माचरण आदि से सार्थक कर लेता है तथा मृत्यु निकट पाने पर पहले से ही योद्धा की तरह कषाय और शरीर की संल्लेखना तथा आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना, भावना एवं प्रायश्चित्त द्वारा यात्मशुद्धि के, अहिंसक शास्त्रस्त्रों से संनद्ध रहता है, वह हँसते-हँसते मृत्यु का वरण करता है / मृत्यु को एक महोत्सव की तरह मानता है और इस नाशवान् शरीर को त्याग देता है / , वह भविष्य में अपने जन्म-मरण की संख्या को घटा देता है, अथवा जन्म-मरण की गति को सदा के लिए अवरुद्ध कर देता है। * इन दोनों कोटि के व्यक्तियों में से एक के भरण को बालमरण और दूसरे के मरण को पण्डित मरण कहा गया है / पहली कोटि का व्यक्ति मृत्यु को अत्यन्त भयंकर मान कर उससे घबराता है, रोता-चिल्लाता है, विलाप करता है, आर्तध्यान करता है। मृत्यु के समय उसके स्मृतिपट पर, अपने जीवन में किये हुए पापकर्मों का सारा चलचित्र उभर आता है, जिसे देख-जान कर वह परलोक में दुर्गति और दुःखपरम्परा की प्राप्ति के भय से कांप उठता है, पश्चात्ताप करता है और शोक, चिन्ता, उद्विग्नता, दुर्ध्यान आदि के वश में होकर अनिच्छा से मृत्यु प्राप्त करता है। वह चाहता नहीं कि मेरी मृत्यु हो, किन्तु बरबस मृत्यु होती है। इसीलिए मृत्यु के स्वरूप एवं रहस्य से अनभिज्ञ उस व्यक्ति की मृत्यु को 'अकाममरण' कहा है / जबकि दूसरा व्यक्ति मृत्यु के स्वरूप एवं रहस्य को भलीभांति समझ लेता है, मृत्यु को परमसखा मान कर वह पूर्वोक्त रीति से उसका वरण करता है, इसलिए उसकी मृत्यु को 'सकाममरण' कहा गया है।' 1. उत्त. नियुक्ति गा. 233 : 'सवे एए दारा मरणविभत्तीइ वणिया कमसो / ' 2. उत्तरा. अ. 5 गा. 1, 2, 3, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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