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________________ चतुर्थ अध्ययन : असंस्कृत अथवा दो अर्थः--द्रव्य से जो नींद में न हो, भाव से धर्माचरण के लिए जागृत हो / ' 'घोरा मुहत्ता' का भावार्थ - यहाँ मुहर्त शब्द से काल का ग्रहण किया गया है। प्राणी की ग्रायु प्रतिपल क्षीण होती है,--इस दृष्टि से निर्दय काल प्रतिक्षण जीवन का अपहरण करता है तथा प्राणी की प्रायु अल्प होती है और मृत्यु का काल अनिश्चित होता है। न जाने वह कब प्रा जाए और प्राणी को उठा ले जाए, इसीलिए उसे घोर-रौद्र कहा है / भारंडपक्खी-भारण्डपक्षी--अप्रमाद अवस्था को बताने के लिए इस उपमा का प्रयोग अनेक स्थलों में किया गया है। चणि और टीकात्रों के अनुसार भारण्डपक्षी दो जीव संयुक्त होते हैं, इन दोनों के तीन पैर होते हैं / वीच का पैर दोनों के लिए सामान्य होता है और एक-एक पैर व्यक्तिगत / वे एक दूसरे के प्रति बड़ी सावधानी बरतते हैं, सतत जाग्रत रहते हैं। इसीलिए भारण्डपक्षी के साथ 'चरे ऽप्पमत्तो' पद दिया है। पंचतंत्र और वसुदेवहिण्डी में भारण्डपक्षी का उल्लेख मिलता है / 3 'जं किंचिपासं०' का आशय– 'यत्किचित्' का तात्पर्यार्थ है----थोड़ा-सा प्रमाद या दोष / यत्किचित् प्रमाद भी पाश-बन्धन है। क्योंकि दुश्चिन्तित, दुर्भाषित और दुष्कार्य ये सब प्रमाद हैं। जो बुरा चिन्तन करता है, वह भी राग-द्वेष एवं कषाय से बंध जाता है / कटु आदि भाषण भी बन्धनकारक है और दुष्कार्य तो प्रत्यक्ष बन्धनकारक है ही। शान्त्याचार्य ने 'ज किचि' का मुख्य प्राशय 'गृहस्थ से परिचय करना अादि' और गौण प्राशय 'प्रमाद' किया है / 4 विषयों के प्रति रागद्वष एवं कषायों से प्रात्मरक्षा की प्रेरणा 11. मुहं मुहं मोह-गुणे जयन्तं अणेग-रूवा समणं चरन्तं / फासा फुसन्ती असमंजसं च न तेसु भिक्खू मणसा पउस्से / / [28] बार-बार मोहगुणों-रागद्वेषयुक्त परिणामों पर विजय पाने के लिए यत्नशील नथा संयम में विचरण करते हुए श्रमण को अनेक प्रकार के (अनुकूल-प्रतिकूल शब्दादिविषयरूप) 1. (क) 'द्रव्यतः शयानेषु, भावतस्तु धर्म प्रत्यजाग्रत्सु / ' (ख) प्रतिबुद्ध-प्रतिवोधः द्रव्यतः जाग्रता, भावतस्तु यथावस्थित-वस्तृतत्त्वावगमः। --बृहद्वत्ति, पत्र 213 2. 'घोगः-रौद्राः सततमपि प्राणिनां प्राणापहारित्वात् मुहूर्ताः--कालविशेषाः दिवसाधुपलक्षणमेतत् / ' -सुखबोधा, पत्र 94 3. (क) एकोदरा पृथग्ग्रीवाः अन्योन्यफलभक्षिणः / प्रमत्ता हि विनश्यन्ति, भारण्डा इव पक्षिणः / / -उत्तरा. अ. 4, गा. 6 वृत्ति (ख) भारण्डपक्षिणो: किल एक कलेवरं पृथग्ग्रीवं विपादं च स्यात् / यदुक्तम् - भारण्डपक्षिणः ख्याताः त्रिपदाः मर्त्यभाषिणः / द्विजिहा द्विमुखाश्चैकोदरा भिन्नफलैषिणः // -कल्पसूत्र किरणावली टीका (ग) पंचतंत्र के अपरीक्षितकारक में उत्तरा. टीका से मिलता-जुलता श्लोक है, केवल 'प्रमत्ता' के स्थान पर 'असंहता' शब्द है। 4. (क) अत्कित्रिदल्पमपि दुश्चिन्तितादि प्रमादपदं मूलगुणादिमालिन्यजनकतया बन्धहेतुल्येन / यत्किचित् गृहस्थसंस्तवाद्यल्पमपि / ' –उत्तरा. बृ, वृ. पत्र 217, (ख) उ. चूणि, पृ, 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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