________________ चतुर्थ अध्ययन : असंस्कृत] [77 वारिगयाणं जालं तिमीण, हरिणाण वागुरा चेव / पासा य सउणयाण णराण बन्वत्थमित्थीग्रो // 1 // उन्नयमाणा अक्खलिय-परक्कम्मा पंडिया कई जे य / महिलाहिं अंगुलीए नच्चाविज्जति ते वि नरा / / 2 / / ' वेराणुबद्धा-वैर शब्द के तीन अर्थ-(१) शत्रुता, (2) वज (पाप) और (3) कर्म / अतः वैरानुबद्ध के तीन अर्थ भी इस प्रकार होते हैं—(१) बैर की परम्परा बांधे हुए, (2) वज्र-पाप से अनुबद्ध, एवं (3) कर्मों से बद्ध / प्रस्तुत में 'कर्मबद्ध' अर्थ ही अभीष्ट है। संधिमुहे सन्धिमुख का शाब्दिक अर्थ सेंध के मुख-द्वार पर है। टोकाकारों ने सेंध कई प्रकार की बताई है—कलशाकृति, नन्द्यावर्ताकृति, पद्माकृति, पुरुषाकृति यादि / ' दो कथाएँ–(१) प्रथम कथा-प्रियंवद चोर स्वयं काष्ठकलाकार वढ़ई था। उसने सोचासंध देखने के बाद लोग आश्चर्यचकित होकर मेरी कला की प्रशंसा न करें तो मेरी विशेषता ही क्या ! उसने करवत से पद्माकृति सेंध वनाई, स्वयं उसमें पैर डाल कर धनिक के घर में प्रवेश करने का सोचा, लेकिन घर के लोग जाग गए। उन्होंने चोर के पैर कस कर पकड़ लिए और अन्दर खोचने लगे। उधर बाहर चोर के साथी उसे बाहर की ओर खींचने लगे। इसी रस्साकस्सो में वह चोर लहूलुहान होकर मर गया / (2) एक चोर अपने द्वारा लगाई हुई सेंध की प्रशंसा सुन कर हर्षातिरेक से संयम न रखने के कारण पकड़ा गया। दोनों कथानों का परिणाम समान है। जैसे चोर अपने ही द्वारा को हुई संध के कारण मारा या पकड़ा जाता है, वैसे ही पापकर्मा जीव अपने ही कृतकर्मों के फलस्वरूप कर्मों से दण्डित होता है।४ ___ दीव-प्पण8 व-दीव के दो रूपः दो अर्थ-द्वीप और दीप / (1) आश्वासद्वीप (समुद्र में डूबते हुए मनुष्यों को पाश्रय के लिए आश्वासन देने वाला) तथा (2) प्रकाशदीप (अन्धकार में प्रकाश करने वाला)। यहाँ प्रकाशदीप अर्थ अभीष्ट है। उदाहरण कई धातुवादी धातुप्राप्ति के लिए भूगर्भ में उतरे / उनके पास दीपक, अग्नि और ईन्धन थे। प्रमादवश दीपक बुझ गया, अग्नि भी बुझ गई। अब वे उस गहन अन्धकार में पहले देखे हुए मार्ग को भी नहीं पा सके 14 जीवन के प्रारम्भ से अन्त तक प्रतिक्षण अप्रमाद का उपदेश 6. सुत्तेसु यावी पडिबुद्ध-जीवी न वीससे पण्डिए आसु-पन्ने / घोरा मुहत्ता अबलं सरोरं भारण्ड-पक्खी व चरेऽप्पमत्तो॥ [6] प्राशुप्रज्ञ (प्रत्युत्पन्नमति) पण्डित साधक (मोहनिद्रा में) सोये हुए लोगों में प्रतिक्षण 1. (क) 'पश्य---अवलोकय ।'-~-वृहद्वृत्ति, पत्र 206 (ख) 'पाशा इव पाशाः ।'-सुखबोधा, पत्र 80 2. (क) वैरं = 'कर्म, तेनानुबद्धाः सततमनुगताः ।'-बृ. वृ., पत्र 206 (ख) वैरानुबद्धाः पापेन सनतमनुगताः / . --सु. बो. पत्र 80 3. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र 207 (ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. 111 4. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र 207-208 (ख) उत्तरा. चूणि, पृ. 110-111 (ग) सुखयोधा पृ. 81-82 5. (क) उत्तरा. नियुक्ति, गा. 206-207 (ख) बृहद्वृत्ति , पृ. 212-213 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org