________________ चतुर्थ अध्ययन : असंस्कृत] 3. कुछ मतवादी अर्थपुरुषार्थ पर जोर देते थे, इस कारण धन को असंस्कृत जीवन का त्राण (रक्षक) मानते थे; परन्तु भगवान् ने धन न यहाँ किसी का त्राण बन सकता है और न ही परलोक में / बल्कि जो व्यक्ति पापकर्मों द्वारा धनोपार्जन करते हैं, वे उस धन को यहीं छोड़ जाते हैं और चोरी, अनीति, बेईमानी, ठगी, हिंसा आदि पापकर्मों के फलस्वरूप वे अनेक जीवों के साथ वैर बांध कर नरक के मेहमान बनते हैं। अतः धन का व्यामोह मनुष्य के विवेक-दीप को बुझा देता है, जिससे वह यथार्थ पथ को नहीं देख पाता / अज्ञान बहुत बड़ा प्रमाद है।' 4. कई लोग यह मानते थे कि कृत कर्मों का फल अगले जन्म में मिलता है तथा कई मानते थे कर्मों का फल है ही नहीं, होगा तो भी अवतार या भगवान् को प्रसन्न करके या क्षमायाचना कर उस फल से छूट जाएँगे। परन्तु भगवान् ने कहा-'कृत कर्मों को भोगे विना छुटकारा नहीं मिलता। कर्मों का फल इस जन्म में भी मिलता है, आगामी जन्म में भी / कर्मों के फल से दूसरा कोई भी बचा नहीं सकता, उसे भोगना अवश्यम्भावी है / 2 / यह भी भ्रान्त धारणा थी कि यदि एक व्यक्ति अनेक व्यक्तियों के लिए कोई शुभाशुभ कर्म करता है, तो उसका फल वे सब भुगतते हैं। किन्तु इसका खण्डन करते हुए भगवान् ने कहा--'संसारी जीव अपने बान्धवों के लिए जो साधारण (सम्मिलित फल वाला) कर्म करता है, उसका फल भोगने के समय वे बान्धव बन्धुता (भागीदारी) स्वीकार नहीं कर सकते, हिस्सा नहीं बँटाते / ' अतः धन, परिजन आदि सुरक्षा के समस्त साधनों के प्रावरणों में छिपी हुई असुरक्षा और पापकर्म फल भोग को व्यक्ति न भूले / ऐसी भी मान्यता थी कि साधना के लिए संघ या गुरु आदि का प्राश्रय विघ्नकारक है, व्यक्ति को स्वयं एकाकी साधना करनी चाहिए; परन्तु भगवान् ने कहा- 'जो स्वच्छन्द-वृत्ति का निरोध करके गुरु के सान्निध्य में रह कर ग्रहण-आसेवना, शिक्षा प्राप्त करके साधना करता है, वह प्रमादविजयी होकर मोक्ष पा लेता है। कुछ लोग यह मानते थे कि अभी तो हम जैस-तैसे चल ल, पिछले जीवन में अप्रमत्त हो जाएँगे, ऐसी शाश्वतवादियों की धारणा का निराकरण भी भगवान ने किया है---'जो पूर्व जीवन में अप्रमादी नहीं होता, वह पिछले जीवन में अप्रमत्तता को नहीं पा सकता, जब आयुष्य शिथिल हो जाएगा, मृत्यु सिरहाने या खड़ी होगी, शरीर छूटने लगेगा, तव प्रमादी व्यक्ति के विषाद के सिवाय और कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा। 8. कुछ लोगों की मान्यता थी कि 'हम जीवन के अन्तिम भाग में आत्मविवेक (भेदविज्ञान) कर लेंगे, शरीर पर मोह न रख कर आत्मा की रक्षा कर लेंगे।' इस मान्यता का निराकरण भी भगवान् ने किया है--कोई भी मनुष्य तत्काल आत्मविवेक (शरीर और आत्मा की पृथक्ता 1. 'वित्तण ताणं न लभे पमत, उत्तराध्ययन मूल. अ. 4. गा. 5,3, 2. वही, अ. 4, गा. 3 3. बही, गा. 4 4. वही, गा. 8 5. वही, गा. 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org