________________ 28] [उत्तराध्ययनसूत्र उपस्थित होने पर निजात्मभावना से उत्पन्न निर्विकार नित्यानन्दरूप सुखामृत अनुभव से विचलित न होना परीषहजय है / ' * अनगारधर्मामृत में बताया गया है कि जो संयमी साधु दुःखों का अनुभव किये बिना ही मोक्ष मार्ग को ग्रहण करता है, वह दुःखों के उपस्थित होते ही भ्रष्ट हो सकता है / इसलिए परीषहजय का फलितार्थ हुआ कि प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति को साधना के सहायक होने के क्षणों तक प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना, न तो मर्यादा तोड़ कर उसका प्रतीकार करना है और न इधर-उधर भागना है, न उससे बचने का कोई गलत मार्ग खोजना है। परीषह आने पर जो साधक उससे न घबरा कर मन की आदतों का या सुविधाओं का शिकार नहीं बनता, वातावरण में बह नहीं जाता, वरन् उक्त परीषह को दुःख या कष्ट न मान कर ज्ञाता-दृष्टा बन कर स्वेच्छा से सीना तान कर निर्भय एवं निर्द्वन्द्व हो कर संयम की परीक्षा देने के लिए खड़ा हो जाता है, वही परीषहविजयी है। वस्तुतः साधक का सम्यग्ज्ञान ही प्रान्तरिक अनाकुलता एवं सुख का कारण बनकर उसे परीषहविजयी बनाता है। परीषह और कायक्लेश में अन्तर है। कायक्लेश एक बाह्यतप है, जो उदीरणा करके, कष्ट सह कर कर्मक्षय करने के उद्देशय से स्वेच्छा से झेला जाता है / वह ग्रीष्मऋतु में आतापना लेने, शीतऋतु में अपावृत स्थान में सोने, वर्षाऋतु में तरुमूल में निवास करने, अनेकविध प्रतिमाओं को स्वीकार करने, शरीरविभूषा न करने एवं नाना प्रासन करने आदि अर्थों में स्वीकृत है / जबकि परीषह मोक्षमार्ग पर चलते समय इच्छा के विना प्राप्त होने वाले कष्टों को मार्गच्युत न होने और निर्जरा करने के उद्देश्य से सहा जाता है / प्रस्तुत अध्ययन में कर्मप्रवादपूर्व के 17 वें प्राभूत से उद्ध त करके संयमी के लिए सहन करने योग्य 22 परीषहों का स्वरूप तथा उन्हें सह कर उन पर विजय पाने का निर्देश है।४ इन में से वीस परीषह प्रतिकूल हैं, दो परीषह (स्त्री और सत्कार) अनुकूल हैं, जिन्हें प्राचारांग में उष्ण और शीत कहा है। इन परीषहों में प्रज्ञा और अज्ञान की उत्पत्ति का कारण ज्ञानावरणीयकर्म है, अलाभ का अन्तरायकर्म है, अरति, अचेल, स्त्री, निषद्या, याचना, आक्रोश, सत्कार-पुरस्कार की उत्पत्ति का कारण चारित्रमोहनीय, 'दर्शन' का दर्शनमोहनीय और शेष 11 परीषहों की उत्पत्ति का कारण वेदनीयकर्म है। * प्रस्तुत अध्ययन में परीषहों के विवेचन रूप में संयमी की चर्या का सांगोपांग निरूपण है। 1. (क) भगवती-आराधना विजयोदया 1159 / 28 (ख) कार्तिकेयानुप्रेक्षा 98, (ग) द्रव्यसंग्रहटीका 35 / 146 / 10 2. अनगारधर्मामृत 6 / 83 3. (क) ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा / उग्गा जहा धरिज्जति कायकिलेसं तमाहियं ॥-उत्तरा. 30 / 27 (ख) प्रौपपातिकसूत्र 19 सू. 4. कम्मप्पवायपूव्वे सत्तरसे पाहडंमि जे सुत्तं / सणयं सोदाहरणं तं चेव इहपि णाय।।-उत्तरा, "क्ति, गा.६९. 5. देखिये तत्त्वार्थसूत्र अ. 9 / 9 में 22 परीषहों के नाम 6. तत्त्वार्थसूत्र अ. 9, 13 से 16 सू. तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.