________________ 7i प्रथम अध्ययन : विनयसूत्र] श्रमणाचार तथा अनुशासन ही मुख्यतया समझना चाहिए; जो कि जैनशास्त्रों और बौद्धग्रन्थों में भी पाया जाता है। विनीत और अविनीत के लक्षण 2. आणानिद्देसकरे, गुरूणमुक्वायकारए / इंगियागारसंपन्ने, से 'विणीए' ति वुच्चई // [2] जो गुरुजनों की आज्ञा (विध्यात्मक आदेश) और निर्देश (संकेत या सूचना) के अनुसार (कार्य) करता है, गुरुजनों के निकट (सान्निध्य में) रह कर (मन और तन से) शुश्रूषा करता है तथा उनके इंगित और आकार को सम्यक् प्रकार से जानता है, वह 'विनीत' कहा जाता है / 3. आणाऽनिद्देसकरे, गुरूणमणुववायकारए / पडिणीए प्रसंबुद्ध, 'अविणीए' ति वुच्चई // [3] जो गुरुजनों को आज्ञा एवं निर्देश के अनुसार (कार्य) नहीं करता, गुरुजनों के निकट रह कर शुश्रूषा नहीं करता, उनसे प्रतिकूल व्यवहार करता है तथा जो असम्बुद्ध (-उनके इंगित और आकार के बोध अथवा तत्त्वबोध से रहित) है; वह 'अविनीत' कहा जाता है। विवेचन--प्राज्ञा और निर्देश प्राचीन प्राचार्यों ने इन दोनों शब्दों को एकार्थक माना है।' अथवा आज्ञा का अर्थ-आगमसम्मत उपदेश या मर्यादाविधि एवं निर्देश का अर्थ-उत्सर्ग और रूप से उसका प्रतिपादन किया गया है। अथवा अाज्ञा का अर्थ गुरुवचन और निर्देश का अर्थ शिष्य द्वारा स्वीकृतिकथन है / विनीत का प्रथम लक्षण आज्ञा और निर्देश का पालन करना है। उपपातकारक बृहद्वृत्ति के अनुसार--सदा गुरुजनों का सान्निध्य (सामीप्य) रखने वाला अर्थात्-जो शरीर से उनके निकट रहे, मन से उनका सदा ध्यान रखे।" चूणि के अनुसारउनकी शुश्रूषा करने वाला-जो वचन सुनते रहने की इच्छा से तथा सेवाभावना से युक्त हो / इस प्रकार उपपातकारक विनीत का दूसरा लक्षण है। इंगियागारसंपन्ने-इंगित का अर्थ है-शरीर की सूक्ष्मचेष्टा. जैसे----किसी कार्य के विधि या निषेध के लिए सिर हिलाना, अाँख से इशारा करना आदि, तथा आकार--- शरीर की स्थूल चेष्टा, 1. प्रस्तुत अध्ययन में अनुशासन, प्राज्ञापालन, संघीय नियम-मर्यादा आदि अर्थों में भी विनय शब्द प्रयुक्त हुआ है। 2. देखें उत्तराध्ययनचूणि, पृ. 26 3. (क) उत्तराध्ययन चूणि, पृ. 26 (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 44 4. यद्वाज्ञा--सौम्य ! इदं च कूरु, इदं मा कार्षीरिति गुरुवचनमेव, तस्या निर्देश:-इदमित्थमेव करोमि, इति निश्चयाभिधानं, तत्करः / -बहदबत्ति, पत्र 44 5. 'उप-समीपे पतनं-स्थानमुपपातः, हवचनविषयदेशावस्थान, तत्कारकः / ' -बृहद्वृत्ति, पत्र 44 6. उपपतनमुपपातः शुश्रूषाकरणमित्यर्थः / -उत्तरा. चूणि, पृ. 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org