________________ प्रथम अध्ययन: परिचय दिया गया है / (3) तृतीय अध्ययन में साधुजीवन की प्राचारसंहिता बताई गई है / (4) चतुर्थ अध्ययन में षट्जीव निकाय की रक्षा, पंचमहाव्रतप्रतिज्ञाविधि तथा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय से आत्मा के पूर्ण विकासक्रम का वर्णन है (5) पंचम अध्ययन में शुद्ध भिक्षाचर्या के विधिविधानों का निरूपण है (6) छठे अध्ययन में अठारह स्थानों का निरूपण साध्वाचार के सन्दर्भ में किया गया है / (7) सातवें अध्ययन में भाषा-विवेक का प्रतिपादन है (8) आठवें अध्ययन में विविध पहलुओं से साध्वाचार का प्रतिपादन है। (9) नौवें अध्ययन के चारों उद्देशकों में विनय के महत्त्व एवं फल आदि का सांगोपांग वर्णन है। (10) दशवें अध्ययन में प्रादर्श भावभिक्षु के लक्षण बताए गए हैं। इसके पश्चात् प्रथम रतिवाक्यचलिका में बाह्य तथा आन्तरिक कठिनाइयों के कारण संयमी जीवन छोड़ कर गृहस्थ हो जाने वाले साधु की अधम एवं क्लिष्ट मनोदशा का वर्णन है / द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका में साधुत्व की विविध साधनाओं के विषय में सुन्दर मार्गदर्शन दिया गया है।' 9. (क) दशव. (संतबालजी) प्रस्तावना, पृ. 25-26 (ख) दश. (प्राचार्य श्री पात्मारामजी) प्रस्तावना, पृ. 8 Jain Education International For Private & Personal use only. www.jainelibrary.org