________________ विविध नामों का प्रयोग भी प्राचार्यों ने किया है। जैसे-टीका, वृत्ति, विवृत्ति, विवरण, विवेचन, व्याख्या, अतिक, दीपिका, अवचूरि, अवचूणि, पंजिका, टिप्पणक, पर्याय, स्तवक, पीठिका, अक्षरार्द्ध / इन टीकाओं में केवल आगमिक तत्त्वों पर ही विवेचन नहीं हुमा अपितु उस युग की सामाजिक, नांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थितयों का भी इनसे सम्यक् परिज्ञान हो जाता है। संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभद्र का नाम सर्वप्रथम है। वे संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डिन थे। उनका सत्ता-समय विक्रम संवत् 757 से 828 है। प्रभावकचरित के अनुसार उनके दीक्षागुरु ग्राचार्य जिनभट थे किन्तु स्वयं प्राचार्य हरिभद्र ने उनका गच्छपति गुरु के रूप में उल्लेख किया है और जिनदत्त को दीक्षागुरु माना है। 248 याकिनी महत्तरा उनकी धर्ममाता थीं, उनका कुल विद्याधर था। उन्होंने अनेक आगमों पर टीकाएं लिखी हैं, वर्तमान में ये आग मटीकाएं प्रकाशित हो चुकी हैं-नन्दीवृत्ति, अनुयोगद्वारवृत्ति, प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या, अावश्यकवृत्ति और दशवकालिकवृत्ति / दशवकालिकवृत्ति के निर्माण का मूल आधार दशवकालिक नियुक्ति है। शिष्यबोधिनी वृत्ति या बृहद्वत्ति ये दो नाम इस वृत्ति के उपलब्ध हैं। वृत्ति के प्रारंभ में दशवकालिक का निर्माण कैसे हुआ? इस प्रश्न के समाधान में प्राचार्य शय्यम्भव का जीवनवृत्त दिया है। तप के वर्णन में प्रार्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान का निरूपण किया गया है। अनेक प्रकार के थोता होते हैं, उनकी दृष्टि से प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण विभिन्न अवयवों की उपयोगिता, उनके दोषों की शुद्धि का प्रतिपादन किया है। द्वितीय अध्ययन की वृत्ति में श्रमण, पूर्व, काम, पद प्रादि शब्दों पर चिन्तन करते हुए तीन योग, नीन करण, चार संज्ञा, पांच इन्द्रिया, पाच स्थावर, दस श्रमणधर्म, अठारह शीलांगसहन का निरूपण किया गया है। तृतीय अध्ययन की वृत्ति में महत, क्षुल्लक पदों की व्याख्या है। पांच प्राचार, चार कथाओं का उदाहरण सहित विवेचन है। चतुर्थ अध्ययन की वत्ति में जीव के स्वरूप का विश्लेषण किया गया है। पात्र महाव्रत, छठा रात्रिभोजनविरमणवत, श्रमणधर्म की दुर्लभता का चित्रण है। पञ्चम अध्ययन की वृत्ति में आहारविषयक विवेचन है। छठे अध्ययन की वृत्ति में व्रतषटक, कायषट्क, अकल्प, गहिभाजन, पर्यङ्क, निषद्या, स्नान और शोभा-वर्जन, इन अष्टादश स्थानों का निरूपण है, जिनके परिज्ञान से ही श्रमण अपने प्राचार का निर्दोष पालन कर सकता है। सातवें अध्ययन की व्याख्या में भापाणुद्धि पर चिन्तन किया है। पाठवें अध्ययन की व्याख्या में प्राचार में प्रणिधि की प्रक्रिया और उसके फल पर प्रकाश डाला है / नौवें अध्ययन में विनय के विविध प्रकार और उससे होने वाले फल का प्रतिपादन किया है। दसवें अध्ययन की वृत्ति में मुभिक्षु का स्वरूप बताया है। चूलिकाओं में भी धर्म के रतिजनक, परतिजनक कारणों पर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत वृत्ति में अनेक प्राकृतकथानक व प्राकृत तथा संस्कृत भाषा के उद्धरण भी आये हैं। दार्शनिक चिन्तन भी यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। आचार्य हरिभद्र संविग्न-पाक्षिक थे। वह काल चैत्यवास के उत्कर्ष का काल था। चैत्यवासी और संविग्न-पक्ष में परस्पर संघर्ष की स्थिति थी। चैत्यवासियों के पास पुस्तकों का 248. सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्य जिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोः अल्पमते: प्राचार्यहरिभद्रस्य / -प्रावश्यकनियुक्ति टीका का अन्त [ 73 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org