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________________ मामान्य भिक्षा न होकर सर्वसम्पत्करी भिक्षा है। सर्वसम्पत्करी 205 भिक्षा, देने वाले और लेने वाले दोनों के लिए कल्याणकारी है। जिसमें संवेग, निर्वेद, विवेक, सुशीलसंसर्ग, झान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, शान्ति, मार्दव, आर्जव, तितिक्षा, आराधना, अावश्यक शुद्धि प्रभृति सद्गुणों का साम्राज्य हो वह भिक्षु है। सूत्रकृतांगसूत्र में भिक्षु की परिभाषा इस प्रकार प्राप्त है जो निरभिमान, विनीत, पापमल को धोने वाला, दान्त, बन्धनमुक्त होने योग्य, निर्ममत्व, विविध प्रकार के परीषहों और उपसगों से अपराजित, अध्यात्मयोगी, विशुद्ध, चारित्रसम्पन्न, सावधान, स्थितात्मा, यशस्वी, विवेकशील तथा परदत्त भोजी है, वह भिक्षु है / 206 जो कर्मों का भेदन करता है वह भिक्षु कहलाता है। भिक्षु के भी द्रव्यभिक्षु और भावभिक्ष, ये दो प्रकार हैं। द्रव्यभिक्षु मांग कर खाने के साथ ही त्रस, स्थावर जीवों को हिंसा करता है; सचित्त भोजी है। स्वयं पका कर खाता है; सभी प्रकार की सावध प्रवृत्ति करता है; संचय करके रखता है। परिग्रही है। भावभिक्षु वह है जो पूर्ण रूप से अहिंसक है; सचित्तत्यागी है, तीन करण, तीन योग से सावध प्रवृत्ति का परित्यागी है; आगम में वर्णित भिक्षु के जितने भी सद्गुण हैं, उन्हें धारण करता है। भिक्ष की गौरव-गरिमा अतीत काल से ही चली आई है। जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों ही परम्परायों में भिक्षु शीर्षस्थ स्थान पर आसीन रहा है। वैदिक परम्परा में संन्यासी पूज्य रहा है, उसे दो हाथों वाला साक्षात् परमेश्वर माना है-'द्विभुजः परमेश्वरः' / बौद्ध परम्परा में भी भिक्षु का महत्त्व कम नहीं रहा है, भिक्षु धर्म-संघ का अधिनायक रहा है। जैन परम्परा में भी भिक्षु को परम-पूज्य स्थान प्राप्त है। भिक्ष का जीवन सद्गुणों का पुञ्ज होता है, वह समाज, राष्ट्र के लिए प्रकाशस्तंभ की तरह उपयोगी होता है। वह स्वकल्याण के साथ ही परकल्याण में लगा रहता है। धम्मपद में भिक्षु के अनेक लक्षण बताए गये हैं, जो प्रस्तुत अध्ययन में बताए गए लक्षणों से मिलते-जुलते हैं। विश्व के अनेक मूर्धन्य मनीषियों ने भिक्ष की विभिन्न परिभापाएं की हैं। सभी परिभाषाओं का सार संक्षेप में यह है कि भिक्षु का जीवन सामान्य मानव के जीवन से अलग-थलग होता है। वह विकार और वासनाओं से एबं राग-द्वेष से ऊपर उठा हया होता है। उसके जीवन में हजारों सद्गुण होते हैं। वह सद्गुणों से जन-जन के मन को आकर्षित करता है। वह स्वयं तिरता है और दूसरों को तारने का प्रयास करता है। भगवान् महावीर स्वयं भिक्षु थे। जब कोई अपरिचित व्यक्ति उनसे पछता कि आप कौन हैं तो संक्षेप में वे यही कहते कि मैं भिक्ष ह / भिक्षु के श्रमण, निम्रन्थ, मुनि, साधु आदि पर्यायवाची शब्द हैं। भिक्षुचर्या की दृष्टि से इस अध्ययन का बहुत ही महत्त्व है। श्रमण जीवन की महिमा उसके त्याग और वैराग्य युक्त जीवन में रही हुई है। रति :विश्लेषण दशवकालिक के दस अध्ययनों के पश्चात् दो चूलिकाएं हैं। चूलिकाओं के सम्बन्ध में हम पूर्व पृष्ठों में लिख चके हैं। प्रथम चलिका 'रतिवाक्या' के नाम से विश्रत है। रति मोहनीयकर्म की अदाईस प्रकृतियों में से एक प्रकृति है, जो नोकषाय के अन्तर्गत है। जैन मनीषियों ने 'नो' शब्द को साहचर्य के अर्थ में ग्रहण किया है। क्रोध, मान, माया, लोभ ये प्रधान कषाय हैं। प्रधान कषायों के सहचारी भाव अथवा उनकी सहयोगी 205. सर्वसम्पत्करी चैका पौरुषघ्नी तथापरा / वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा विधोदिता। 206. सूत्रकृतांग 111663 -अष्टक प्रकरण 511 [ 53] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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