________________ द्वितीय परिशिष्ट : कथा, दृष्टान्त, उदाहरण] [439 अधीनता स्वीकार न करके, या किसी आशा-आकांक्षा से प्रेरित होकर दीनता या खुशामद न करने, तथा निःस्पृहभाव से जीने वाले निर्ग्रन्थ मुधाजीवी अत्यन्त दुर्लभ हैं। -दशवै. अ. 5 / 1 / 213 (प्राचार्य श्री पात्मारामजी म.) (13) प्रज्ञप्तिधर : कथाकुशल कैसे होते हैं ? (आयार-पन्नत्तिधरे ...) व्यवहारसूत्रभाष्य में प्रज्ञप्तिधर का अर्थ कथाकुशल करके भाष्यकार एक रोचक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं एक क्षुल्लकाचार्य प्रज्ञप्ति-कुशल (कथानिपुण) थे। एक दिन उनकी धर्मसभा में मुरुण्डराज उपदेश श्रवण कर रहे थे। प्रसंगवश मुरुण्डराज ने एक प्रश्न प्रस्तुत किया--'भगवन् ! देवता गतकाल को नहीं जानते, इसे सिद्ध कीजिए।' राजा ने प्रश्न पूछा कि प्राचार्य सहसा खड़े हो गए। प्राचार्य को खड़ा होते देख मुरुण्डराज भी खड़ा हो गया। प्राचार्य को क्षीरास्रवल ब्धि प्राप्त थी। वे उपदेश देने लगे। उनकी वाणी से दूध की-सी मधुरता टपक रही थी। मुरुण्डराज मन्त्रमुग्ध की तरह सुनता रहा। उसे पता ही न लगा कि कितना समय बीत गया है। प्राचार्य ने पूछा-'राजन् ! तुम्हें खड़े हुए कितना समय बीत गया ?" 'भगवन् ! मैं तो अभी-अभी खड़ा हुअा हूँ।' राजा ने कहा। प्राचार्य ने कहा-'तुम्हें खड़े हुए एक पहर बीत चुका है। उपदेश-श्रवण में तुम इतने प्रानन्दविभोर हो गए कि तुम्हें गतकाल का पता नहीं चल सका। इसी प्रकार देवता भी नृत्य, गीत, वाद्य आदि में इतने प्रानन्दमग्न हो जाते हैं कि वे भी गतकाल को नहीं जान पाते / यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। __ --दशवै. अ. 8, गा, 46 -व्यवहार भाष्य 4 / 31145-146 (14) स्त्री से ही नहीं, स्त्रीशरीर से भी भय ! (जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुललनी भयं०) ब्रह्मचारी साधक को स्त्री से भय है, ऐसा न कह कर स्त्री-शरीर से भय है, इस सम्बन्ध में प्राचार्य जिनदास महत्तर ने एक संवाद प्रस्तुत किया है शिष्य ने पूछा-'भगवन् !' स्त्री से भय है, ऐसा न कह कर 'स्त्रीशरीर से भय है, ऐसा क्यों कहा ? "प्राचार्य ने कहा-'आयुष्मन् ! ब्रह्मचारी को स्त्री के सजीव शरीर से ही नहीं, अपितु मत शरीर से भी भय है, यह बताने के लिए ऐसा कहा गया है। शिक्ष प्रश्न किया'भगवन् ! विविक्त स्थान में स्थित मुनि के लिए किसी प्रकार दर्शनार्थ आई हुई केवल स्त्रियों को कथा कहने का निषेध करने का क्या कारण है ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org