________________ 438] [दशवकालिकसत्र बहुत-से भिक्षुक पाए, जिनमें कार्पटिक, जटाधारी, जोगी, तापस संन्यासी, श्रमण, ब्राह्मण आदि सभी थे। नियत समय पर राजा ने आकर उनसे पूछा-'भिक्षुनो! कृपा करके यह बतलाइए कि आप सब अपना जीवननिर्वाह कैसे करते हैं ?' ___ उपस्थित भिक्षुत्रों में से एक ने कहा--'मैं अपना निर्वाह मुख से करता हूँ।' दूसरे ने कहा'मैं पैरों से निर्वाह करता हूँ।' तीसरे ने कहा-'मैं हाथों से अपना निर्वाह करता हूँ।' चौथे ने कहा-'मैं लोकानुग्रह से निर्वाह करता हूँ।' पांचवें ने कहा-'मेरे निर्वाह का क्या ! मैं तो मुधाजीवी हूँ।' __ राजा ने सबकी बातें सुन कर कहा-"आप सब ने जो-जो उत्तर दिया, उसे मैं समझ नहीं सका / कृपया इसका स्पष्टीकरण कीजिए।" इस पर उत्तरदाताओं ने क्रमशः कहना प्रारम्भ किया प्रथम-'राजन् ! मैं भिक्षुक तो हो गया पर पेट वश में नहीं है / उदरपूर्ति के लिए मैं लोगों के सन्देश पहुँचाया करता हूँ / अत: मैंने कहा कि मैं मुख से निर्वाह करता हूँ।' द्वितीय--'महाराज ! मैं साधु हूँ। पत्रवाहक का काम करता हूँ। गृहस्थ लोग, जहाँ भेजना होता है, वहाँ पत्र देकर मुझे भेज देते हैं और उपयुक्त पारिश्रमिक द्रव्य दे देते हैं, जिससे मैं अपनी मावश्यकताएँ पूरी करता हूँ। अतः मैं पैरों से निर्वाह करता हूँ।' तृतीय--'नरेन्द्र ! मैं लेखक हूँ। मैं अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति लेखन-कार्य से करता हूँ ! इसलिए मैंने कहा कि मैं अपना निर्वाह हाथों से करता हूँ।' __चतुर्थ--'महीपाल ! मैं परिव्राजक हूँ / मेरा कोई खास धंधा नहीं है, जिससे मेरा निर्वाह हो / परन्तु मैं आवश्यकताओं की पूर्ति लोगों के अनुग्रह से करता हूँ। अतः येन-केन-प्रकारेण लोगों को प्रसन्न रखना मेरा काम है-इसी से मेरा निर्वाह हो जाता है।' पंचम—“आयुष्मन् देवानुप्रिय ! मेरे निर्वाह का क्या पूछते हैं ? मैं तो संसार से सर्वथा विरक्त निर्ग्रन्थ हूँ। मैं अपने निर्वाह के लिए किसी प्रकार का सांसारिक कार्य नहीं करता। केवल संयम-पालन के लिए गृहस्थों द्वारा निःस्वार्थ बुद्धि से दिया अाहार प्रादि निःस्पृहभाव से ग्रहण करता हूँ। मैं सर्वथा स्वतन्त्र और अप्रतिबद्ध हूँ। मैं आहार आदि के बदले किसी गृहस्थ का कुछ भी सांसारिक कार्य नहीं करता, न किसी की खुशामद करता हूँ, और न किसी पर दबाव डालता हूँ। इसलिए मैंने कहा कि मैं मुधाजीवो हूँ / निष्काम भाव से जीता हूँ। राजा ने सबको बातें सुन कर निर्णय किया कि वास्तव में यही सच्चा धर्मगुरु-साधु मुधाजीवी है / इसी धर्म को तथा धर्मोपदेश को ग्रहण करना चाहिए। राजा ने मुधाजीवी निर्ग्रन्थ से धर्मोपदेश सुना / संसार से विरक्ति हो गई। प्रतिबुद्ध होकर राजा उन्हीं के पास प्रवजित हो गया और संयम-साधना करके मोक्ष का अधिकारी बना। / इस दृष्टान्त का निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार से जाति आदि के सहारे, किसी की प्रतिबद्धता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org