________________ * 'प्रणिधि' शब्द का प्रयोग कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अनेक बार किया है। वहाँ गुढ़ पुरुष-प्रणिधि, राग-प्रणिधि, दूत-प्रणिधि यादि प्रणिधि पद वाले कितने ही प्रकरण हैं / अर्थशास्त्र के व्याख्याकार ने प्रणिधि का अर्थ कार्य में लगाना तथा व्यापार किया है। प्रस्तुत पागम में जो प्रणिधि शब्द का प्रयोग हुअा है वह साधक को आचार में प्रवृत्त करना या प्राचार में संलग्न करना है। इस अध्ययन में कषायविजय, निद्राविजय, अट्टहासविजय के लिए सुन्दर संकेत किए गए हैं। प्रात्मगवेषी साधकों के लिए संयम और स्वाध्याय में सतत संलग्न रहने की प्रवल प्रेरणा दी गई है। जो संयम और स्वाध्याय में रत रहते हैं वे स्व-पर का रक्षण करने में उसी प्रकार समर्थ होते हैं जैसे आयुधों से सज्जित बीर सैनिक सेना से घिर जाने पर भी अपनी और दूसरों की रक्षा कर लेता है / 187 विनय : एक विश्लेषण नौवें अध्ययन का नाम विनयसमाधि है। विनय तप है और तप धर्म है। अतः साधक को विनय धारण करना चाहिए।१८८ विनय का सम्बन्ध हृदय से है। जिसका हृदय कोमल होता है वह गुरुजनों का विनय करता है / अहंकार पत्थर की तरह कठोर होता है, वह टूट सकता है पर झुक नहीं सकता। जिसका हृदय नम्र है, मुलायम है, उसकी वाणी और आचरण सभी में कोमलता की मधुर सुवास होती है। विनय प्रात्मा का ऐसा गुण है, जिससे ग्रात्मा सरल, शुद्ध और निर्मल बनता है। विनय शब्द का प्रयोग आगम-साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है। कहीं पर विनय नम्रता के अर्थ में व्यवहृत हुया है तो कहीं पर प्राचार और उसकी विविध धाराओं के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में विनय शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ को लिए हुए है। श्रमण भगवान महावीर के समय एक सम्प्रदाय था जो विनयप्रधान था।१८९ वह बिना किसी भेदभाव के सबका विनय करता था। चाहे श्रमण मिले, चाहे ब्राह्मण मिले, चाहे गृहस्थ मिले, चाहे राजा मिले या रंक मिले, चाहे हाथी मिले या घोड़ा मिले, चाहे कुकर मिले या शंकर मिले, सब का विनय करते रहना ही उसका सिद्धान्त था। इस मत के वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्म, वाल्मीकि, रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, तेलापुत्र, इन्द्रदत्त पादि बत्तीस प्राचार्य थे जो विनयवाद का प्रचार करते थे। पर जैनधर्म दैनयिक नहीं है, उसने प्राचार को प्रधानता दी है। ज्ञाताधर्मकथा में सुदर्शन नामक श्रेष्ठी ने थावच्चापुत्र अणगार से जिज्ञासा प्रस्तुत कीआपके धर्म और दर्शन का मूल क्या है ? थावच्चापुत्र अणगार ने चिन्तन की गहराई में डुबकी लगाकर कहासुदर्शन ! हमारे धर्म और दर्शन का मूल विनय है और वह विनय अगार और अनगार विनय के रूप में है। अगार और अनगार के जो व्रत और महावत हैं उनको धारण करना ही अगार-अनगार विनय है / 162 इस अध्ययन में विनय-समाधि का निरूपण है तो उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन का नाम विनयश्र त दिया गया है। —प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार 315 187. दशवकालिक, 8161 188. विणो वि तवो तवो वि धम्मो तम्हा विणम्रो पउंजियन्वो। 189. सूत्रकृतांग 1 / 12 / 1 190. प्रवचनसारोद्धार सटीक, उत्तरार्द्ध पत्र-३४४ 191. (क) तत्त्वार्थ राजवार्तिक 81, पृष्ठ 562 (ख) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, प. 444 192. ज्ञातासूत्र 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org