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________________ वसवां अध्ययन : स-भिक्षु] [383 आगे कहा गया है-'सरीरं नाभिकखए।' भिक्षुप्रतिमाओं का विशेष वर्णन दशाश्रुतस्कन्ध में है / असई बोसट्टचत्तदेहे-व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह उसे कहते हैं, जिसने शरीर का व्युत्सर्ग और त्याग किया हो / व्युत्सर्ग और त्याग दोनों समानार्थक होते हुए भो आगमों में ये शब्द विशेष अर्थ में प्रयुक्त हैं / व्युत्सृष्टदेह का अर्थ है- अभिग्रह और प्रतिमा स्वीकार करके जिसने शारीरिक क्रिया का त्याग कर दिया है और त्यक्तदेह का अर्थ-शरीरिक परिकर्म (मर्दन, स्नान और विभूषा आदि) का जिसने परित्याग कर दिया है। व्युत्सृष्टदेह का अर्थ जिनदासचूमि में शारीरिक अस्थिरता से निवृत्त होने के लिए स्थान (कायोत्सर्ग), मौन और ध्यानपूर्वक शरीर का व्युत्सर्ग करना किया गया है। हरिभद्रसूरि ने अर्थ किया है-किसी प्रकार के प्रतिबन्ध के विना शरीर का विभूषादि परिकर्म जिसने छोड़ दिया है। वह / भिक्ष को बार-बार देह का व्युत्सर्ग करना चाहिए, इसका प्राशय हैउसे काया का स्थिरीकरण या कायोत्सर्ग और उपसर्ग सहने का अभिग्रह करते रहना चाहिए।' पुढविसमे हविज्जा-जिस प्रकार पृथ्वी आक्रोश, हनन और तक्षण करने पर भी सब सह लेती है, तथैव मुनि को भी आक्रोश, हनन आदि को क्षमाभाव से सहना चाहिए / अनियाणे : 13. (क) ग्रामो विषयशब्दाऽस्त्रभूतेन्द्रियगुणाद व्रजे। ---अभिधानचिन्तामणि 395 (ख) गाममहणेण इंदियगहणं कयं / जहा कंटगा सरीरानुगता सरीरं पीडयंति तहा अणिट्ठा विसय कंटगा सोताइदियगामे अणप्पविट्ठा तमेव इंदियं पीडयंति / तज्जणाए जहा एते समणा किवणा कम्मभौता पन्वतिया, एवमादि। —जिन. चूणि, पृ. 343 (ग) ग्रामकण्टकान्-गामा-इन्द्रियाणि, तदु.खहेतवः कण्टकास्तान् स्वरूपत एवाह-पाक्रोशान् प्रहारान् ( कशादिभिः) तर्जनाश्च / भैरवभया-अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते, तत्तथा तस्मिन् वैतालादिकृताऽऽर्तनादाद्रहास इत्यर्थः / पतिमां-मासादिरूपां। -हारि. वृत्ति, पत्र 267 (घ) भयं पसिद्ध', भयं च भेरवं, न सव्यमेव भयं भेरवं, किन्तु तत्थवि जं अतीव दारुणं भयं तं भेरव भण्डाइ। वेतालगणादयो भयभेरवकायेण महता सण जत्थ ठाणे पहसंति सप्पहासे, तं ठाणं भयभेरवसप्पहासं भण्णइ। (ङ) “पच्चवायो-भयं रोद्द भैरवं वैतालकालिवादीण सद्दो / भयभे रवसद्देहिं समेच्च पहसणं भयभेरवसद्द संपहासो / तंमि समुवस्थिते / " (च) जधा सक्कभिक्खण एस उबदेसो मासाणिगेण भवितव्वं, ण य ते तम्मि बिभेति, तम्मत-णिसेधणत्थं विसे सिज्जति / –अगस्त्यचूर्णि * दशाथ त स्कन्ध 7 दशा. (छ) वोसट्ठो चत्तो य देहो जेण, सो वोसट्ठ-चत्तदेहो। वोसट्ठो पडिमादिसु विनिवृत्तक्रियो, हाणु मद्दणातिविभूषाविरहितो चत्तो। -अगस्त्यचूर्णि (ज) ण य सरीरं तेहि उवसम्गेहिं वाहिज्जमाणोऽवि अभिकखइ, जहा--जइ मम एतं सरीरं न दुक्खाविज्जेज्जा, ण वा विणिस्सिज्जेज्जा / वोसठं ति वा वोसिरियं ति वा एगट्ठा / —जिन. चूणि पृ. 344 (झ) ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि। -आवश्यक 4 (अ) 'व्युत्सृष्टो भावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तो विभूषाकरणेन देहः / ' -हारि. वृत्ति, 267 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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