________________ दसवां अध्ययन : स-भिक्षु] [381 ___ 'निहइंदिए' प्रादि पदों के अर्थ-निहुइंदिए-निभृतेन्द्रिय-निभृत का अर्थ विनीत या निश्चल / जिसकी इन्द्रियां अनुद्धत या अचंचल हैं, वह निभूतेन्द्रिय है। जो इन्द्रियों पर कठोर नियंत्रण से संयम सीमा से उन्हें बाहर नहीं जाने देता। संजमधुवजोगजुत्ते-संयमध वयोगयुक्त-यहाँ ध्रुव का अर्थ है--अवश्यकरणीय या सदैव / योग का अर्थ है-मन-वचन-काय / अत: इस पंक्ति का अर्थ हुपा-जो संयम में सदैव (सर्वकाल) मन, वचन और काया से संयुक्त रहता है, अर्थात्-स्वीकृत संयम से मन-वचन-काया तीनों में से एक को भी न हटाने वाला / उवसंते-उपशान्त-अनाकुल, अव्याक्षिप्त अथवा काया की चपलता से रहित / अविहेडए : अविहेठक-(१) विग्रह, विकथा आदि प्रसंगों में समर्थ होने पर भी जो ताडना-तर्जना (डांट-फटकार) आदि द्वारा दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता, (2) उचित कार्य का अनादर न करने वाला अर्थात्-अवसर आने पर स्वयोग्य कार्य करने में आनाकानी न करने वाला, अथवा (3) क्रोध आदि का परिहार करने वाला। सद्भिक्षु : आक्रोशादि परोषह-भय-कष्टसहिष्णु 531. जो सहइ उ गाम-कंटए, अक्कोस-पहार-तज्जणाओ य / भय-भेरवसद्द संपहासे, समसुह-दुक्खसहे य जे, स भिक्खू // 11 // 532. पडिमं पडिवज्जिया मसाणे, नो भायए भय-भेरवाई दिस्स / विविहगुणतयोरए य निच्चं, न सरीरं चाभिकखईजे, स भिक्ख / / 12 / / 533. असई बोसट्ठचत्तदेहे, अकुट्ठ व हए व लूसिए वा। पुढविसमे मुणी हवेज्जा , अनियाणे प्रकोउहल्ले य जे, स भिक्खू // 13 // 534. अभिभूय काएण परीसहाइ, समुद्धरे जाइपहानो* अप्पयं / विइत्तु जाइमरणं महन्मयं, तवे+रए सामणिएजे, स भिक्खू // 14 // 12. (क) निभृतेन्द्रियः---अनुद्धतेन्द्रियः / ध्र वं सर्वकालं / उपशान्तः अनाकुलः कायचापलादिरहितः / ___ अविहेठकः-न क्वचिदुचितेऽनादरवान् क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये / -हारि. वृ., पत्र 266 (ख) दशव. (प्राचार्य श्री प्रात्मा.) पृ. 972 (ग) संजमे सव्वकाल (ध्र वं) तिविहेण जोगेण जुत्तो भवेज्जा / अविहेडए नाम जे पर अक्कोसतेप्पणादीहि न विधेडयति एवं स अविहेडए / -जि. चुणि.. पाठान्तर-~* जाइवहायो।+ भवे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org