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________________ 380] [दशकालिकसूत्र होही अट्ठो सुए परे वा० : व्याख्या-सुए का अर्थ है-श्व:-अागामी कल और परेपरश्वः का अर्थ है --परसों अथवा तीसरा, चौथा आदि दिन / न निहे : बासी नहीं रखता, स्थापित करके नहीं रखता, अर्थात् संचय नहीं करता। यह आहार कल या परसों या तीन चार दिन के लिए काम आएगा, इस विचार से जो रातबासी नहीं रखता या संचय करके नहीं रखता। जिस प्रकार पक्षी भूख लगने पर इधर-उधर घूम कर अपनी प्रकृति के योग्य भोजन पाकर पेट भर लेता है, वह भविष्य के लिए कुछ भी संग्रह करके नहीं रखता, उसी प्रकार भिक्षु भी भिक्षाटन से जो कुछ निर्दोष पाहार मिलता है, उससे क्षुधा-निवृत्ति कर लेता है, भविष्य के लिए संग्रह करके नहीं रखता।' __साहम्मियाण छंदिय : व्याख्या सार्मिकों को इच्छाकारपूर्वक निमंत्रित कर / सार्मिक का अर्थ-समानधर्मा साधु है। साधु भोजन के लिए उन्हीं को आमंत्रित कर सकता है, जिनका वेष, क्रिया, चर्या एवं नियमोपनियम समान हों। वह विषयभोगी (असमानधर्मा) साधु को या श्रावक को निमंत्रित नहीं कर सकता। जिनदासचूणि के अनुसार-- 'मुझ पर अनुग्रह करें' ऐसा मान कर साधु अपने सार्मिक साधुओं को निमंत्रित करे अर्थात् आप अपनी इच्छानुसार इसमें से ग्रहण करें, इस प्रकार अपनी ओर से उन्हें लेने के लिए अनुरोध (मनुहार) करे। यदि किसी साधर्मों साधु की इच्छा हो तो उसे प्रदान कर स्वयं आहार करना चाहिए।'' नय वाहियं कहं कहेज्जा-वैग्रहिकी कथा वह है जिस कथा, चर्चा या वार्ता से विग्रह, (कलह, युद्ध या विवाद) उत्पन्न हो। कलह या झगड़े को प्रोत्साहन देने वाली बातें नहीं कहनी चाहिए / न य कुप्पे–'कोप न करे,' इसका आशय यह है कि कोई विवाद बढ़ाने वाली चर्चा छेड़े अथवा चर्चा करते हुए कोई मतवादी कुतर्क प्रस्तुत करे तो उसे सुन कर मुनि कोप न करे।" (घ) 'अहवा सम्मद्दिटिणा जो इदाणी अत्यो भण्णइ तंमि अत्थि सया अमूढा दिट्ठी कायव्वा / ......."जहा अस्थि हु जोगे नाणे य, तस्स नाणस्स फलं संजमे य, संजमस्स फलं, ताणि य इममि चेव जिणवयणे संपण्णाणि, णो अण्णेसू कुप्पावयणसत्ति। ..."मणवयणकायजोगे सद्र संवडेत्ति। तत्थ मणेणं ताव अकुसलमणणिरोधं करेइ, कसलमणोदीरणं च, वायाएवि पसत्थाणि वायण-परियट्याईणि कव्वइ. मोण वा आसेवई, काएण सयणासण-प्रादाण मिक्खेवण-ठाण-चंकमणाइसु कायचेट्ठाणियम कवति, सेसाणि य अकरणिज्जाणि य ण कुव्वइ। —जिन. चूणि., पृ. 342 अमूढः--अविप्लुतः सन्न वं मन्यते--अस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेष्वपि तपश्च बाह्याभ्यन्तरं कर्ममलापनयनजलकल्पं संयमश्च नवकर्मानुपादानरूपः / -हारि. व., पत्र 266 (क) परश्वः / न निधत्ते, न स्थापयति / हारि. व., पत्र 266 (ख) परग्गहणेण तइयं-चउत्थमादीण दिवसाण गहणं कयं / न निहे, न निहाबए णाम न परिवासिज्जत्ति वुत्तं भवति / -जिन. चूणि., पृ., 342 10. (ख) साधम्मिया-समाणधम्मिया साधुणो। छंदो इच्छा, इच्छाकारेणं जोयणं छंदणं, एवं छंदिय / -अग. चूणि / (ख) दसवेयालियं-(मु. नथ.) पृ. 490 (क) न च वैग्रहिकी कलहप्रतिबद्धां कथां कथयति / -हारि, वृ., पृ. 266 (ख) जति वि परो कहेज्ज तधावि अम्हं रायाणं देसं वा गिदसित्ति // कप्पेज्जा / बादादी सयमवि कहेज्जा विग्गहकह, ण य पुण कुप्पेज्जा / -अ. चूर्णि। (ग) दसवेयालियं (मु. न.), पृ. 490 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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