________________ विशवकालिकसूत्र [522] जो (सचित्त) पृथ्वी को नहीं खोदता तथा दूसरों से नहीं खुदवाता, शीत (सचित्त) जल नहीं पीता और न पिलाता है, (खड्ग आदि) शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण अग्नि को न जलाता है और न जलवाता है, वह भिक्षु है / / 2 / / [523] जो वायुव्यंजक (पंखे आदि) से हवा नहीं करता और न दूसरों से करवाता है, जो हरित (हरो वनस्पति) का छेदन नहीं करता और न दूसरों से कराता है, जो बीजों (बोज आदि) का सदा विवर्जन करता हुआ (उनके स्पर्श से दूर रहता हुआ) सचित्त (पदार्थ) का आहार नहीं करता, वह भिक्षु है // 3 // [524] (भोजन बनाने में) पृथ्वी, तृण और काष्ठ के आश्रित रहे हुए त्रस और स्थावर जीवों का वध होता है। इसलिए जो प्रौद्देशिक (आदि दोषों से युक्त आहार) का उपभोग नहीं करता तथा जो (अन्नादि) स्वयं नहीं पकाता और न दूसरों से पकवाता है, वह सद्भिक्षु है / / 4 // [525] जो ज्ञातपुत्र (श्रमण भगवान महावीर) के वचनों में रुचि (श्रद्धा) रख कर षटकायिक जीवों (सर्वजीवों) को प्रात्मवत् मानता है, जो पांच महाव्रतों का पा पांच (हिंसादि) प्रास्रवों का संवरण (निरोध) करता है ,वह सद्भिक्षु है / / 5 / / विवेचन-समिक्षु की परिभाषा-जो विधिवत् गृहस्थाश्रम का त्याग कर षट्जीवनिकाय का त्राता एवं पंचमहाव्रती बनता है, वही वास्तविक भिक्षु है, यही इन 5 गाथाओं में बताया गया है। निक्खम्ममाणाए : व्याख्या-आणाए : आज्ञा से-तीर्थकर एवं गणधर को प्राज्ञा, आगम, उपदेश, सन्देश या वचन से / निक्खम्मः निष्क्रम्य अर्थात् (1) द्रव्यगृह और भावगृह से निकल कर, प्रवजित होकर / (2) सर्वसंगपरित्याग करके, अथवा गृह या गृहस्थभाव से निकल कर द्विपद आदि का त्याग कर / द्रव्यगृह अर्थात् घर और भावगृह यानो गृहस्थभाव, गृहस्थ-सम्बन्धी प्रपंच या सम्बन्ध / (3) प्रारम्भ-समारम्भ से दूर हो कर / ' बुद्धक्यणे चित्तसमाहिओ : अर्थ-बुद्धवचन में समाहितचित्त, इसका भावार्थ है-बुद्ध अर्थात --तीर्थंकर या गणधर के वचन अर्थात्-प्रवचन में जिसका चित्त भलीभांति ग्राहित-लोन होता है। 1. (क) प्राणा वा प्राणत्ति नाम उववायोति वा उवदेसोत्ति वा पागमो त्ति वा एगट्ठा / निष्क्रम्य-तीथंकर-गण घराज्ञया निष्क्रम्य-सर्वसंगपरित्यागं कृत्वेत्यर्थः ....."निक्खम्म नाम गिहाओ गिहत्यभावामो वा दुपदादीणि चइऊण / --जिन. चणि., पृ. 338 (ख) आणा वयणं संदेसो वा / निक्कम-निग्गच्छिऊण गिहातो प्रारंभातो वा / -प्र. चूणि. 2. (क) बुद्धवचने-अवगततत्त्वतीर्थंकर-गणधरवचने / चित्तसमाहितः-चित्तनातिप्रसन्नो भवेत्, प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः। -हा. कृ., पत्र 265 (ख) बुद्धा जाणणा तेसिं वयणं-बूद्धवयणं दुवालसंगं गणिपिडगं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org