________________ 350] [दशवकालिकसूत्र [481-482] जो गृहस्थ लोग इस लोक (में आजीविका) के निमित्त, (अथवा लौकिक) सुखोपभोग के लिए, अपने या दूसरों के लिए; (कलागुरु से) शिल्पकलाएँ या नैपुण्यकलाएँ सीखते हैं। (कलाओं को सीखने में) लगे हुए, ललितेन्द्रिय (सुकुमार राजकुमार आदि) व्यक्ति भी कला सीखते समय (शिक्षक द्वारा) घोर बन्ध, वध और दारुण परिताप को प्राप्त होते हैं / / 13-14 / / [483] फिर भी वे (राजकुमार आदि) गुरु के निर्देश के अनुसार चलने वाले (छात्र) उस शिल्प के लिए प्रसन्नतापूर्वक उस शिक्षकगुरु की पूजा करते हैं, सत्कार करते हैं, नमस्कार करते हैं / / 15 / / [484] तब फिर जो साधु आगमज्ञान (श्रुत) को पाने के लिए उद्यत है और अनन्त-हित (मोक्ष) का इच्छुक है, उसका तो कहना ही क्या? इसलिए आचार्य जो भी कहें, भिक्षु उसका उल्लंघन न करे / / 16 / / विवेचन लोकोत्तर विनय की अनिवार्यता : मोक्षकामी के लिए प्रस्तुत 5 गाथाओं (480 से 484 तक) में लौकिक लाभार्थ शिल्प, कला आदि में निपुणता के लिए कलाचार्य का दृष्टान्त देकर मोक्षकामी के द्वारा शास्त्रीय ज्ञान में नैपुण्य के लिए विनयभक्ति की अनिवार्यता सिद्ध की गई है। प्राचार्य और उपाध्याय के लक्षण-प्राचार्य के चार लक्षण-(१) सूत्र-अर्थ से सम्पन्न तथा अपने गुरु द्वारा जो गुरुपद पर स्थापित हो, वह आचार्य है, (2) सूत्र-अर्थ का ज्ञाता किन्तु अपने गुरु द्वारा गुरुपद पर स्थापित न हो, वह भी प्राचार्य कहलाता है / वृत्ति के अनुसार सूत्रार्थदाता अथवा गूरु-स्थानीय ज्येष्ठ आर्य 'प्राचार्य' कहलाता है। इन सबका फलितार्थ यह है कि गुरुपद पर स्थापित या प्रस्थापित जो सूत्र और अर्थ-प्रदाता है, वह प्राचार्य है / ओघनियुक्ति के अनुसार 'अत्थं वाएइ अायरियो सुत्तं वाएइ उवज्झायो।' अर्थात्-सूत्रवाचनाप्रदाता उपाध्याय होते हैं और अर्थवाचनाप्रदाता आचार्य होते हैं। सिक्खा : शिक्षा-गुरु के समीप रह कर प्राप्त किया जाने वाला शिक्षण / यह शिक्षा दो प्रकार की होती है—(१) ग्रहणशिक्षा (शास्त्र-ज्ञान का ग्रहण करना) और (2) प्रासेवनशिक्षा (उस ज्ञान को आचार में क्रियान्वित करने का अभ्यास सीखना)।" सिप्पा उणियाणि : शिल्पानि नैपुण्यानि-शिल्प शब्द कुम्भकार, लोहार, सुनार आदि के 6. (क) सुत्तत्थतदुभयादिगुणसम्पन्नो अप्पणो गुरूहि गुरुपदे त्थावितो पायरियो / --अ. चूणि, पृ. 9 / 3 / 1 (ख) 'पागरिपो सुत्तत्थतदुभविऊ, जो वा अन्नोऽपि सुत्तत्थतदुभयगुणे हि अ उबवेग्रो गुरुपए ण ठाविओ, सोऽवि पायरियो चेव।' —जिन, चूर्णि, पृ. 318 (ग) 'आचार्य सूत्रार्थप्रदं, तत्स्थानीयं वाऽन्यं ज्येष्ठार्यम् / ' हारि. वृत्ति, पत्र 252 (घ) 'प्रत्थं वाएइ आयरियो, सुतं वाएइ उवज्झाओ।' -'सूत्रप्रदा उपाध्यायाः, अर्थप्रदा प्राचार्याः / ' -~-प्रोपनियुक्ति वृत्ति. 7. "सिक्खा दुविहा-गहणसिक्खा पासेवणसिक्खा य / " ---जिन. चणि, पृ. 313 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org