________________ 330] [दशकालिकसूत्र 451. से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे। विरायइ कम्मघणम्मि अवगए, कसिणऽभपुडावगमे व चंदिमा // 63 // --त्ति बेमि॥ अट्ठमं : पायारप्पणिहि-अज्झयणं समत्तं // 8 // [446] (जो मुनि) इस (सूत्रोक्त) (बाह्याभ्यन्तर) तप, संयमयोग और स्वाध्याय-योग में सदा निष्ठापर्वक प्रवत्त रहता है, वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसी प्रकार समर्थ होता है, जिस प्रकार सेना से घिर जाने पर समग्र प्रायुधों (शस्त्रास्त्रों) से सुसज्जित शूरवीर // 61 / / [450] स्वाध्याय और सद्ध्यान में रत, त्राता, निष्पापभाव वाले (तथा) तपश्चरण में रत मुनि का पूर्वकृत (कर्म) मल उसी प्रकार विशुद्ध होता है, जिस प्रकार अग्नि द्वारा तपाए हुए रूप्य (सोने और चांदी) का मल / / 62 / / [451] जो (पूर्वोक्त) गुणों से युक्त है, दुःखों (परीषहों) को (समभावपूर्वक) सहन करने वाला है, जितेन्द्रिय है, श्रुत (शास्त्रज्ञान) से युक्त है, ममत्व रहित और अकिंचन (निष्परिग्रह) है; वह कर्मरूपी मेघों के दूर होने पर, उसी प्रकार सुशोभित होता है, जिस प्रकार सम्पूर्ण अभ्रपटल से विमुक्त चन्द्रमा / / 63 / / --ऐसा मैं कहता हूँ। _ विवेचन इहलौकिक और पारलौकिक उपलब्धियाँ प्रस्तुत तीन गाथानों (446 से 451 तक) में इस अध्ययन में उक्त आचार-प्रणिधि के सूत्रानुसार संयमी जीवनयापन करने वाले मुनि को प्राप्त होने वाली इहलौकिक, पारलौकिक उपलब्धियों का वर्णन किया गया है। तीन उपलब्धियां (1) कषाय-विषय आदि से अपनी रक्षा करने और कर्मशत्रुओं को हटाने में समर्थ हो जाता है, (2) अग्नितप्तस्वर्ण की तरह पूर्वकृत कर्ममल से रहित हो जाता है, और (3) अभ्रपटलमुक्त चन्द्रमा की तरह कर्मपटलमुक्त सिद्ध प्रात्मा बन जाता है / ___ सरे व सेणाई. पंक्ति का प्राशय-जो साधु तप, संयम एवं स्वाध्याययोग में रत रहता है, वह इन्द्रियों और कषायों की सेना से घिरा होने पर तप आदि खडग प्रभति अपनी आत्मरक्षा करने में और कर्म आदि शत्रुओं को परास्त करके खदेड़ने में उसी प्रकार समर्थ होता है, जिस प्रकार समग्र शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित योद्धा शत्रु को चतुरंगिणी विशाल सेना से घिरा होने पर अपनी रक्षा करने और शत्रुओं को खदेड़ने में समर्थ होता है। अथवा जिस प्रकार शस्त्रों से सुसज्जित वीर चतुरंगिणी सेना से घिर जाने पर अपना और दूसरों का संरक्षण करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार जो मुनि तप, संयम, स्वाध्यायादि गुणों से सम्पन्न होता है, वह इन्द्रिय और कषायरूप सेना से घिर जाने पर अपनी आत्मा की और संघ के अन्य साधुओं के आत्मा की पापों 71. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org