________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि] [275 हे देवानुप्रिय ! हे भद्र ! हे धर्मनिष्ठ ! इत्यादि मधुरशब्दों से सम्बोधित करना चाहिए।'५ इसके लिए शास्त्रकार ने कहा है-'जहारिहममिगिज्झ'-अर्थात् यथायोग्य, जहाँ जिसके लिए अवस्था आदि की दृष्टि से जो शब्द उचित हो, उस सुन्दर शब्द से गुणदोष का विचार करके बोले / पुरुष को प्रार्यक आदि शब्दों से सम्बोधन का निषेध : क्यों ?--सूत्रगाथा 349-350 में बताया गया है कि आर्यक आदि सांसारिक कौम्बिक सम्बोधनों से सम्बोधित नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे रागभाव, मोह या आसक्ति बढ़ने की आशंका है। द्वितीय गाथा में उक्त होल, गोल, वसुल आदि शब्द भी निन्दा-स्तुति-चाटुतादि सूचक होने से दोषोत्पादक हैं / विशेष वक्तव्य पूर्वोक्त स्त्री सम्बोधन-प्रकरण में कह दिया गया है / पंचेन्द्रिय प्राणियों के विषय में बोलने का निषेध-विधान 352. पंचिदिआण पाणाणं एस इत्थी अयं पुमं / जाव णं न वियाणेज्जा तात, 'जाइ' त्ति आलवे // 21 // 353. तहेव माणुसं पसु पक्खि वा वि सरीसिवं / थूले पमेइले बज्झे, पाइमे त्ति य नो वए // 22 // 354. परिवूढे ति णं बूया, बूया उवचिए ति य / / संजाए पीणिए वा वि, महाकाए ति आलवे // 23 // 355. तहेब गायो दुज्झानो, दम्मा गोरहग त्ति य / वाहिया रहजोग्ग ति, नेवं भासेज्ज पण्णवं // 24 // 356. जुवंगवे ति णं ब्रूया, धेणु रसदय ति य / रहस्से महल्लए वा वि वए संवहणे त्ति य // 25 // [352] पंचेन्द्रिय प्राणियों को (दूर से देख कर) जब तक 'यह मादा (स्त्री) है अथवा नर (पुरुष) है' यह निश्चयपूर्वक न जान ले, तब तक (साधु या साध्वी) (यह मनुष्य की जाति है, यह गाय की जाति है, या यह घोड़े की) जाति है; इस प्रकार बोले / / 21 / / [353] इसी प्रकार (दयाप्रेमी साधु या साध्वी) मनुष्य, पशु-पक्षी अथवा सर्प (सरीसृप आदि) को (देख कर यह) स्थूल है, प्रमेदुर (विशेष मेद बढ़ा हुआ) है, वध्य (अथवा वाह्य) है, या पाक्य (पकाने योग्य) है, इस प्रकार न कहे / / 22 // / [354] (प्रयोजनवश बोलना ही पड़े तो) उसे परिवृद्ध (सब प्रकार से वृद्धिंगत) है, ऐसा भी कहा जा सकता है; उपचित (मांस से पुष्ट) है, ऐसा भी कहा जा सकता है, अयवा (यह) संजात 15. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी). पृ. 353 / (ख) दशव. पत्राकार (प्राचार्यश्री आत्मारामजी), पृ. 660 (ग) अभिगिज्य नाम पुब्वमेव दोसगुणे चितेऊण / -जि. चू., पृ. 251 16. दश. (ग्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.) पत्राकार पत्र, 662 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org