________________ 268] [दशवकालिकसूत्र जा य बुद्धहिणाइन्ना-प्राशय-प्रस्तुत गाथा संख्या 333 के तृतीय चरण में 'य' शब्द से 'असत्यामृषा' का अध्याहार किया गया है / वृत्तिकार ने इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार किया है पा और असत्यामषा जो बद्धों अर्थात-तीर्थकर गणधरों द्वारा अनाचरित है। प्राशय यह है कि जो सत्यभाषा या असत्यामषा (आमंत्रणी या प्राज्ञापनी आदि रूपा सावध होने के कारण) तीर्थंकरों या गणधरों द्वारा अनाचरणीय बतलाई गई है, उस भाषा को भी प्रज्ञावान् न बोले।" एयं च प्रदुमन्नवा, जं तु नामेइ सासयं : दो व्याख्याएँ, स्पष्टीकरण-(१) अगस्त्यसिंह स्थविर इस गाथा (335) का सम्बन्ध सत्या और असत्यामृषा के निषेध से बतलाते हैं। इस दृष्टि से सासयं का अर्थ 'स्वाशय' है / तथा 'सच्चमोस' के बदले 'असच्चमोसं' पाठ मानकर अर्थ किया है धूवर्ग के लिए अभ्यनज्ञात उस सत्यभाषा और असत्यामषा भाषा को भी धीर साधू (या साध्वी) न बोले, जो स्वाशय (अपने आशय) को 'यह अर्थ है या दूसरा ?' इस प्रकार संशय में डाल दे। असत्यामृषाभाषा के 12 प्रकारों में 10 वाँ प्रकार 'संशयकरणी' है, जो अनेकार्थवाचक होने से श्रोता को संशय में डाल दे। जैसे-किसी ने कहा-"सैन्धव ले आओ।" सैन्धव के 4 अर्थ होते हैं—(१) नमक, (2) सिन्धु देश का घोड़ा, (3) वस्त्र, और (4) मनुष्य / श्रोता संशय में पड़ जाता है कि कौन-सा सैन्धव लाया जाए? यहाँ वक्ता ने सहजभाव से अनेकार्थक शब्द का प्रयोग किया है, इसलिए अनाचीर्ण नहीं है, किन्तु जहाँ प्राशय को छिपा कर दूसरों को भ्रम में डालने के लिए 'अश्वत्थामा हतः' की तरह अनेकार्थवाचक शब्द का प्रयोग किया जाए तो ऐसी संशयकरणी व्यवहार (असत्यामृषा) भाषा अनाचीर्ण है / अथवा जो शब्द संदेहोत्पादक हो, उसका प्रयोग भी अनाचीर्ण है / (2) अगस्त्यचूणि के अनुसार सासयं का संस्कृत रूप / 'शाश्वत' भी होता है, शाश्वत स्थान का अर्थ 'मोक्ष' है। अर्थात्-सक्रिय प्रास्रवकर एवं छेदनकर आदि अर्थ, जो शाश्वत मोक्ष को भग्न करे, उस सत्यभाषा और असत्यामषा भाषा का भी धीर साधक प्रयोग न करे।" 4. (क) 'या च बुद्ध :--तीर्थकर--गणधरैरनाचरिता असत्यामषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा / ' -हा. वृ.,प. 213 (ख) उत्थी वि जा अ बुद्ध हिंऽणाइन्ना गहणेण असच्चामोसा वि गहिता, उक्कमकरणे मोसावि गहिता / -जि. चू., पृ. 244 5. (क) संशयकरणी च भाषा-अनेकार्थ-साधारणा योच्यते सैन्धवमित्यादिवत् / -हा. वृ., प. 210 (ख) 'साम्प्रतं सत्या-सत्यामषा प्रतिषेधार्थमाह।' -हा. व., प. 210 / / (ग) 'स भिक्खु ण केवलं जायो पुव्वभणियाओ सावज्जभासाप्रो वज्जेज्जा, किन्तु जा वि असच्चमोसा भासा तामपि 'धीरो'-बुद्धिमान "विवर्जयेत्'---न ब्र यादिति भावः / एयं सावज्जं कक्कसं च / -जि. चू., पृ. 245 (घ) सा पूण साधुणोऽभणुण्णाता त्ति सच्चा""असच्चमोसामपि तं पढममभणण्णतामवि। एतमिति सावज्ज कक्कसं च / प्रणं सकिरियं अण्हयकरी छेदन करी एवमादि / सासतो मोक्खो। -अगस्त्यणि, पृ. 165 (ङ) तत्र मषा सत्या- मृषा च साधूनां तावन्न वाच्या, सत्याऽपि या कर्कशादिगुणोपेता सा न वाच्या। तहप्पगारं भास सावजं सकिरियं कक्कसं कड़यं निरं फरसंपण्हयकरि छयणरि भयणकरि परितावणवरि उवणरि भूमोबधाइयं अभिकंख नो भासेज्जा।' --प्राचारांग चला, 4110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org