________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि] विवेचन-चारों भाषाओं का स्वरूप और हेयोपादेय-विवेक-प्रस्तुत 5 सूत्रगाथाओं (332 से 336 तक) में चारों भाषाओं का स्वरूप भलीभांति जान कर उनमें से वक्तव्य, प्रवक्तव्य के विवेक का प्रतिपादन किया है / 1. सत्याभाषा-वह भाषा जो वस्तुस्थिति का यथार्थ परिबोध हो जाने के पश्चात् विचारपूर्वक बोली जाती है। 2. असत्याभाषा-वह है, जो वस्तुस्थिति का पूर्ण भान हुए बिना ही क्रोधादि कषायनोकषायवश अविचार से बोली जाती है / यह वक्ता-श्रोता दोनों का अकल्याण करती है / 3. सत्यामषा (मिश्र) भाषा-वह है, जिसमें सत्य और असत्य दोनों का मिश्रण हो / किसी को सोते-सोते सूर्योदय के बाद कुछ देर हो गई, उससे कहा-दिखता नहीं, 'दोपहर हो गया' / यह भी असत्यभाषा के समान ही है। 4. असत्यामषा (व्यवहार) भाषा-वह है, जो जनता में सामान्यतया प्रचलित होती है, जिसका श्रोता पर अनुचित प्रभाव नहीं पड़ता।' हेयोपादेय-विवेक-इन चार प्रकार की भाषाओं में से असत्य तथा सत्या-मषा तो सर्वथा वर्जनीय हैं, शेष दो भाषाओं में विवेक करना चाहिए। जो भाषा सत्य तो है, किन्तु हिंसादि पाप को उत्तेजित करती है, वह नहीं बोलनी चाहिए / जैसे-किसी कसाई के पूछने पर सच कह देना कि गाय इधर गई है / अथवा जो असत्याऽमृषा (व्यवहार भाषा) भो पापकारी हो, जैसे-'मिट्टी खोद डालो, इन्हें मार डालो प्रादि, नहीं बोलनी चाहिए। सत्य भाषा अगर पापकारी नहीं है, र है, (कर्कश-कठोर, भयावह नहीं है, तथा संदेहरहित है, तो विचारपूर्वक बोली जा सकती है। कर्कश एवं कठोर भाषा सत्य होते हुए भी दूसरे के चित्त को प्राघात पहुंचाने वाली होने से बोलने योग्य नहीं / कठोर भाषा का परिणाम वैर और हिंसक प्रतीकार उत्पन्न करता है / अतः साधु के मुंह से निकलने वाली वाणी मधुर और सत्य होनी चाहिए।' विणयं---(१) भाषा का वह प्रयोग, जिससे धर्म का अतिक्रमण न हो, विनय कहलाता है, (2) भाषा का शुद्ध प्रयोग विनय है, (3) 'विजयं सिक्खे' : विजय अर्थात् निर्णय सीखे / तात्पर्य यह है कि बोलने योग्य भाषाओं के शुद्धप्रयोग का निर्णय सीखे / अथवा वचनीय और अवचनीय रूप का निर्णय (विजय) सीखे / अथबा सत्य और व्यवहारभाषा का निर्णय करना चाहिए कि उसे क्या और कैसे बोलना या नहीं बोलना ? 3 _____..........----- 1. दशवकालिक सूत्रम पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी म.), पत्र 635-636 2. (क) वही, पत्र 637-639 (ख) बुद्धस्तीर्थकरगणधरैरनाचरिता असत्यामषा प्रामंत्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा। -हा. वृ., पत्र 213 3. (क) विनयं-शद्धप्रयोग, विनीयतेऽनेन कर्मति कृत्वा / —हारि, वत्ति, पत्र 213 / (ख) जं भासमाणो धम्म णातिककमाइ एसो विणयो भण्णइ। —जिन, चणि, पृ. 244 (ग) विजयो समाणजातियागो णिकरिसणं ।'"तत्थ वयणीयावयणीयतेण विजयं सिक्खे / प्र.चु., पृ. 168 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org