________________ 260] [वशवकालिकसूत्र [326] (शुद्ध संयम के पालक साधु या साध्वी) स्नान अथवा अपने शरीर का उबटन करने के लिए कल्क (चन्दनादि सुगन्धित द्रव्य), लोध्र (लोध) या पद्मराग (कुकुम. केसर प्रादि तथा अन्य सुगन्धित तेल या द्रव्य) का कदापि उपयोग नहीं करते // 63 / / [327] (द्रव्य और भाव से) नग्न, मुण्डित, दीर्घ (लम्बे-लम्बे) रोम और नखों वाले तथा मैथुनकर्म से उपशान्त (निवृत्त) साधु को विभूषा (शरीरशोभा या शृगार) से क्या प्रयोजन है ! // 64 // [328] विभूषा के निमित्त से साधु (या साध्वी) चिकने (दारुण) कर्म बाँधता है, जिसके कारण वह दुस्तर संसार-सागर में जा पड़ता है / / 6 / / [326] तीर्थंकर देव (बुद्ध) विभूषा में संलग्न चित्त को वैसा ही (विभूषा के तुल्य ही चिकने कर्मबन्ध का हेतु) मानते हैं। ऐसा चित्त (पात-रौद्रध्यान से युक्त होने से) सावद्य-बहुल (प्रचुर-पापयुक्त) है। (अतएव) यह षट्काय के त्राता (साधु-साध्वियों) के द्वारा प्रासेवित नहीं है / / 66 // विवेचन-विभूषा : स्वरूप, निषेधहेतु एवं दुष्फल-प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं (326 से 326 तक) में यह बताया गया है कि विभूषा साधुवर्ग के लिए क्यों त्याज्य है ? विभूषा के ध्यान में रत चित्तवाला साधक कैसे कठोर दुष्कर्मों को बांधता है ? स्वरूप-शरीर को विभिन्न सुगन्धित द्रव्यों से उबटन करके चिकना, कोमल और गौर बनाना. विभिन्न प्रकार के वस्त्राभूषणों से या अन्य पदार्थों से सुसज्जित-सुगन्धित करना, केश, नख प्रादि अमुक ढंग से काटना, रंगना, सजाना-संवारना आदि सब विभूषा है। विभूषा के साधन-प्रस्तुत गाथाओं में विभूषा के उस युग में प्रचलित कुछ साधनों का उल्लेख किया है। यथा--सौन्दर्य-प्रसाधनार्थ स्नान, कल्क, लोध, पद्मकेसर, केशकलाप, नखकर्तन वस्त्रादि से साजसज्जा आदि / वर्तमान में अन्य साधन हो सकते हैं। विभूषा का त्याग क्यों आवश्यक ? --(1) इससे देहभाव बढ़ता है, जिससे शरीर पर ममतामूर्छा बढ़ती है, आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं, संयम नियम में शिथिल हो जाता है। (2) अहनिश शरीरसज्जा पर ध्यान रहने से चित्त भ्रान्त रहता है। स्वाध्याय, ध्यान आदि आवश्यक दिनचर्या से मन हट जाता है। (3) विभूषा के लिए अनेक प्रारम्भ समारम्भयुक्त साधनों का उपभोग करना हिसानुप्राणित होने से वह असंयमवर्द्धक है, सावध-बहुल है। (4) शरीर पर अत्यधिक मोह एवं आसक्ति होने से विभूषा चिकने कर्मबन्ध का कारण है / 2 'सिणाणं' आदि शब्दों का विशेषार्थ--स्नान' : तीन अर्थ -(1) अंगप्रक्षालन चूर्ण, (2) गन्धवतिका, (3) सामयिक उपस्नान / कक्क-कल्क : तीन अर्थ--(१) तेल की चिकनाई मिटाने हेतु लगाया जाने वाला अाँवले या पिसी हुई दाल का सुगन्धित उबटन, (2) गन्धाट्टक-स्नानार्थ प्रयुक्त 52. (क) दशवै. (संतबालजी), पृ. 86 (ख) दशवै. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 378-379 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org