________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] [257 [322] जरा (बुढ़ापे) से ग्रस्त, व्याधि (रोग) से पीड़ित और (उग्र) तपस्वी; इन तीनों में से किसी के लिए गृहस्थ के घर में बैठना कल्पनीय है / / 56 / / / विवेचन-गहस्थ के घर में बैठने से दोष-प्रस्तुत 4 गाथाओं (316 से 322 तक) में गृहस्थ के घर में बैठने से होने वाले दोषों का उल्लेख किया है। मुख्य दोष निम्नलिखित बताए हैं--(१) अनाचार-प्राप्ति, (2) अबोधिकारक फल (मिथ्यात्व) की प्राप्ति, (3) ब्रह्मचर्य के प्राचरण में विपत्ति, (4) प्राणियों का वध होने से संयम का घात, (5) भिक्षाचरों के अन्तराय लगता है, जिससे उन्हें प्राधात पहुँचता है. (6) ब्रह्मचर्य असुरक्षित हो जाता है एवं (7) स्त्रियों के प्रति शंका / _ 'अणाया' आवज्जइ अबोहियं : आशय-(१) गृहस्थ के घर में बैठने या कथावार्ता करने से साधु का साध्वाचारपथ से गिर कर अनाचारपथ / नाना सम्भव है। एक बार अनाचार प्राप्त होने से साधक किसी भी तुच्छ निमित्त को पाकर सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जाता है और क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव, जो अत्यन्त सत्प्रयत्नों से प्राप्त होते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं और साधक प्रौदयिकभाव में पहुँच कर मिथ्यात्वग्रस्त हो जाता है। (2) घर में इधर-उधर डोलती-फिरती, सोती एवं बैठती स्त्रियों के अंगप्रत्यंगों को बार-बार देखने तथा उनकी मनोज्ञ इन्द्रियों को निरखने से और उनके साथ बातचीत करने तया अतिपरिचय होने से चित्त कामरागवश चंचल होने से ब्रह्मचर्य का विनाश सम्भव है। (3) अतिसंसर्ग के कारण रागभाववश साधु के लिए नाना प्रकार का स्वादिष्ट भक्त-पान तैयार किया जा सकता है, जिससे प्राणियों का वध होना स्वाभाविक है / (4) जो भिक्षाचर घर पर मांगने आते हैं, उनको अन्तराय होता है, क्योंकि देने वाले सब साधु की सेवा में बैठ जाते हैं, साधु को बुरा लगेगा, यह सोच कर गहिणी उन भिक्षाचरों की ओर ध्यान नहीं देती। फलतः वे निराश होकर लौट जाते हैं। (5) घर के स्वामी को, साधु के इस प्रकार घर में बैठने से उस के चारित्र के प्रति शंका होती है। 'इत्थीओ वावि संकणं' से यह अर्थ किया गया है-स्त्री के प्रफुल्ल बदन और कटाक्ष आदि की अनेक कामोत्तेजक चेष्टाएँ देख कर लोग उसके प्रति शंका करने लगते हैं कि इस स्त्री का मुनि से लगाव दिखता है। वैसे ही मुनि के प्रति भी शंकाशील हो जाते हैं कि यह साधु ब्रह्मचर्य से पतित है।४७ निसिज्जा जस्स कप्पइ-पहले उत्सर्ग के रूप में गृहस्थ के घर में बैठने का साधु के लिए निषेध किया गया था। इस सूत्र में अपवाद रूप से तीन प्रकार के साधुओं के लिए गृहस्थ के घर में बैठना परिस्थितिवश कल्पनीय बताया है–साधु यदि (1) रोगिष्ठ, (2) उग्र तपस्वी, या (3) वृद्धावस्था से पीड़ित हो। रोग, उग्र तप या बुढ़ापा देह को शिथिल बना देता है, इस कारण गोचरी के लिए गया हुआ भिक्षु कदाचित् हाँफने लगे या थक जाए तो गृहस्थ के यहाँ घर के लोगों से अनुज्ञा 47. (क) दशवकालिकसूत्रम् (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 371 (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. 85 (ग) अबोहिकारि अबोहिकं / --अग. चूणि, पृ. 154 अबोहि नाम मिच्छत्तं / —जिन. चूणि, पृ. 229 (घ) कहं बंभचेरस्स विवत्ती होज्जा? अवरोप्परो-संभास-प्रन्नोऽन्नदंसणादीहिं बंभचेर विवत्तीभवति / -जिन. चूणि, 229 (3) "तत्थ य बहवे भिक्वायरा एंति... ते तस्स अवणं भासंति।" ---जिन. चु, प्र. 230 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org