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________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] [255 पन्द्रहवाँ स्थान : पयंक प्रादि पर सोने-बैठने का निषेध 316. आसंदी-पलियंकेसु मंचमासालएसु वा। ___ अणायरियमज्जाणं प्रासइत्तु सइत्तु वा // 53 // 317. नासंदीपलिअंकेसु, न निसिज्जा न पीढए। निग्गंथाऽपडिलेहाए बुद्धवृत्तमाहिटगा // 54 // 318. गंभीरविजया एए पाणा दुप्पडिलेहगा। आसंदी पलियंको य एयमझें विवज्जिया // 55 // [316] आर्य (एवं आर्यानों) के लिए आसन्दी और पलंग पर, मंच (खाट) और प्रासालक (सिंहासन या आरामदेह लचीली कुर्सी) पर बैठना या सोना अनाचरित है 1153 / / [317] तीर्थंकरदेवों ( बुद्धों) द्वारा कथित प्राचार का पालन करने वाले निर्ग्रन्थ (विशेष परिस्थिति में बैठना पड़े तो) विना प्रतिलेखन किये, न तो प्रासन्दी, पलंग पर बैठते हैं और न गद्दी या प्रासन (निषद्या) पर बैठते हैं, न ही पीढे पर बैठते (उठते या सोते) हैं / / 14 / / [318] ये (सब शयनासन) गम्भीर छिद्र वाले होते हैं, इनमें सूक्ष्म प्राणियों का प्रतिलेखन करना दुःशक्य होता है; इसलिए प्रासन्दी एवं पर्यक (तथा मंच आदि) पर बैठना या सोना वजित किया है / / 5 / / विवेचन--पर्यक आदि पर सोने-बैठने का वर्जन क्यों?प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (316 से 318) में पर्यक प्रादि पर सोने-बैठने के निषेध के कारणों की मीमांसा तथा प्रापवादिक रूप से प्रतिलेखनपूर्वक बैठने-सोने का प्रतिपादन किया है। पर्यंक आदि पर बैठने-सोने का निषेध करने के पीछे एक प्रबल कारण यह दिया है कि ये सब शयन-ग्रासन गम्भीर (पोले) छिद्र वाले अथवा इनके विभाग अप्रकाशकर होते हैं। इसलिए वहाँ रहे हुए जीवों का भलीभाँति प्रतिलेखन नहीं हो सकता / किसी विशेष परिस्थिति में राजकुलादि में धर्मकथा आदि करने हेतु कदाचित् बैठना पड़े तो प्रतिलेखन किये बिना न बैठे।४५ पलिअंक आदि पदों के विशेष अर्थ-प्रासंदी-भद्रासन, पलिअंक-पर्यक- पलंग। मंचमांचा, खाट या चारपाई / आशालक-जिसमें सहारा हो, ऐसा सुखकारक-आसन / वर्तमान काल में इसे आरामकुर्सी आदि कहते हैं। निसिज्जा-निषद्या-एक या अनेक वस्त्रों से बना हुआ अासन या गद्दी / पीढए-पीठ, पीढा / जिनदासचूणि के अनुसार यह पीढा पलाल का और वृत्ति के अनुसार बेंत का बना हुआ होता है। गंभीरविजया--(१) गंभीरविचया–गम्भीर छिद्रों वाले या (2) 45. (क) गंभीरं अप्रकाशं, विजयः-पाश्रयः अप्रकाशाश्रया एते। --हारि. वृत्ति, पत्र 204 (ख) गंभीरं अप्पगासं विजयो-विभागो / गंभीरो विजयो जेसि ते गंभीरविजया। -अ. च., पृ. 154 (ग) धम्मकहा-रायकुलादिसु पडिलेहिऊण निसीयणादीणि कुब्वंति / -जिन. चूर्णि, पृ. 299 (घ) पडिलेहणा-पमत्तो-विराहम्रो होई। उत्तरा. अ. 27 / 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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