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________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] [253 करना, शक्षस्थापना-अकल्प्य है / जिनदास महत्तर के अनुसार जिसने पिण्डनियुक्ति या पिण्डैषणाऽध्ययन (आचारांग) न पढ़ा हो उसके द्वारा लाया हुमा भक्त-पान, जिसने शय्याऽध्ययन (प्राचारचूला-२) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा याचित वसति (उपाश्रयादि) और जिसने वस्त्रैषणा (आचारचूला-५) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा प्रानीत वस्त्र, वर्षाकाल में किसी को प्रवजित करना तथा ऋतुबद्ध काल में अयोग्य को प्रवजित करना शैक्ष-स्थापना-अकल्प्य कहलाता है। वत्तिकार ने इसके अतिरिक्त भी बताया है कि जिसने पात्रैषणा (प्राचारचला-६) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा पानीत पात्र भी शैक्षस्थापना-अकल्प्य है। अकल्पनीय पिण्ड आदि को ही इन व्याख्याकारों ने 'अकल्पस्थापना-अकल्प्य' कहा है और यही यहाँ संगत है।" अभोज्जाई आदि पदों का विशेषार्थ-अभोज्जाइ-अभोज्यानि अर्थात् अकल्पनीय, असेवनीय / जो भक्त-पान, वस्त्र, पात्र और वसति (उपाश्रय आदि प्रावासस्थान) साधु-साध्वियों के लिए अग्राह्य हों, विधिसम्मत न हों, संयम के लिए अपकारी हों, वे अकल्पनीय हैं / 'इसिणा : (1) ऋषिणा : ऋषि के द्वारा अथवा (2) ऋषीणां : ऋषियों का / पाहारमाईणि-आहारादि / आदि शब्द से शय्या, वस्त्र और पात्र का ग्रहण करना चाहिए।४२ चौदहवां प्राचारस्थान : गृहस्थ के भाजन में परिभोगनिषेध 313. कंसेसु कंसपाएसु कुडमोएसु वा पुणो। भुजंतो असणपाणाई+आयारा परिभस्सई // 50 // 314. सोमओदगसमारंभे मत्तधोयणछड्डणे / जाई छण्णंति भूयाई, तत्थ* दिट्ठो प्रसंजमो // 51 // 41. (क) पढमोत्तरगुणो अकप्पो / सो दुविहो तं.---सेहठवणाकप्पो अकप्पठवणाकप्पो य / पिंड-सेज्ज-वत्थपत्ताणि अप्पप्पणो अकप्पितेण उप्पाइयाणि ण कप्पति !...."अकप्पठवणाकप्पो इमो। -~-अगस्त्यचणि, प, 152 (ख) अणहीग्रा खल जेणं पिडेसणसेज्ज-बत्थ-पाएसा / तेणाणियाणि जतिणो कप्पति ण पिंडमाईणि // 1 // उउबद्ध मि ण अणला, बासावासे उ दोवि णो सेहा। दिक्खिज्जती पायं उवणाकप्पो इमो होइ॥ 2 // हारि. वृत्ति, पत्र 203 42. (क) अभोज्जाणि-अकप्पियाणि। --जि. च., पृ. 227 (ख) प्रभोज्यानि-संयमापकारित्वेनाकल्पनीयानि / (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 322 (घ) इसिणा-साधुना। --जिन, चू., पृ. 227 (ङ) ऋषीणां-साधूनाम् / —हारि. वृत्ति, पृ. 203 (च) 'ग्राहार-शय्या-वस्त्रयात्राणि-माहारादीनि / ' -हा. व., पत्र 203 पाठान्तर + असणपागाई। *सो तत्थ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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