________________ 246] [दशवकालिकसूत्र रात्रिभोजनत्याग तो फलित हो ही जाता है / ओघनियुक्ति में प्रातः, मध्याह्न और सायं इन तीनों समयों में भोजन करने की अनुज्ञा प्रतीत होती है / * लज्जासमावित्ति : विशेष भावार्थ-लज्जा का अर्थ यहाँ संयम है। उसके सदृश यानी संयम के अनुरूप या अविरोधिनी वृत्ति (निर्दोष भिक्षा से प्राप्त आहारादि का दिवस में उपभोग)। तात्पर्य यह है कि दिवस में शुद्ध भिक्षा से प्राप्त आहार का उपभोग संयम के अनुरूप-अविरोधी वृत्ति है, जो भगवान् ने साधु-साध्वियों के लिए बताई है।३४ रात्रिभोजमस्याग के मुख्य कारण प्रस्तुत दो गाथाओं में रात्रिभोजन के मुख्य दोष बताए गए हैं-रात्रि में अन्धकार होने से त्रस और स्थावर जीवों को रक्षा नहीं हो सकती; रात्रि में दीपक, या अन्य प्रकाश का उपयोग साधु नहीं कर सकता, यदि चाँदनी रात हो, या प्रकाशित स्थान हो तो भी रात्रि में नाना प्रकार के संपातिम जोव प्रा-पाकर भोजन में गिर सकते हैं / इससे आत्मविराधना और जीवविराधना दोनों होती हैं / भिक्षाचर्या भो रात में सर्वत्र प्रकाश न होने से नहीं हो सकती और न ही एषणाशुद्धि हो सकती है। रात्रि में अन्धकार में मार्गशुद्धि और आहारशुद्धि नहीं हो सकती। रात्रि को भिक्षाचरी के लिए भ्रमण करने में भूमि पर पड़े हुए या रहे हुए जीव-जन्तु नहीं दिखाई दे सकते / सचित्त जल से भोगा हा या बोजादि से संस्पृष्ट आहार दिखाई न देने से रात्रि में आहार ग्रहण करना भी निषिद्ध है। निष्कर्ष यह है कि रात्रि में विहार और भिक्षाचर्या दोनों ही निषिद्ध होने से रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध हो जाता है। इन सब दोषों के कारण भगवान ने रात्रि में प्राहार करने का निषेध किया है।३५ रात्रिभोजन से संयमविराधना का 33. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 317 (ख) एमस्स रागहोस रहियस्स भोप्रणं, प्रहवा इकवारं दिवसयो भोयणति / -जिनदासचूणि, पृ. 222 (ग) द्रव्यतः एक-एकसंख्पानुगतं, भावतः कर्मबन्धाभावाद् द्वितीयं, तदिवस एवं रागादिरहितस्य, अन्यथा भावत एकत्वाभावादिति। ---हारि. वत्ति, पत्र 199 (घ) उदयत्यमणे काले णाली-तिय-बज्जियम्हि मज्झम्हि / एकम्हि दुन-तिए वा मुदत्तकाले य भत्तं तु // -मूलाचार, मूलगुण. 35 (ङ) दिनार्द्ध समयेऽतीते, भज्यते नियमेन यत / एकभक्तमिति प्रोक्त, रात्री तन्न कदाचन // —स्कन्दपुराण (च) “एककाले चरेद् भक्ष्यम् / ' --मनुस्मृति 6 / 55 (छ) ब्रह्मचर्योक्तपार्गेण सकृद्दोजनमाचरेत् / -वशिष्ठस्मति 31198 (ज) प्रत्थंगम्मि प्राइच्ने, पुरत्या य अणुग्गए / अाहारमाइयं सव्वं मणसा वि न पत्थए / -दश. 8 / 28 (झ) भगवती 7 / 1 सू. 21 * अोधनियुक्ति गा. 250, भाष्य गा. 148-149 34. (क) 'लज्जा-संयमस्तेन समा-सदृशी-तुल्या संयमाविरोधिनीत्यर्थः / / याबल्लज्जासमा / —हारि. वृत्ति, पत्र 199 35. (क) दशव. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी महाराज), प्र. 340, 341, 342 (ख) उदकाद्र पूर्ववग्रहणे तज्जातीयग्रहणास्निग्मादिपरिग्रहः / / 'बोजसंसक्त'-बीजैः संसक्त-मिश्रम, प्रोदनादीति गम्यते, अथवा बीजानि पृथकभूतान्येव, संसक्त चारनालाद्यपरेणेति / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 200 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org