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________________ 244] [दशवकालिकसूत्र धारंति परिहरंति : विशेषार्थ--प्रयोजन होने पर वस्त्रादि का उपयोग करने की दृष्टि से शास्त्रोक्त मर्यादानुसार रखना, धारण करना कहलाता है तथा वस्त्रादि का स्वयं परिभोग करना, परिहरण करना (पहनना) कहलाता है / 30 महेसिणा : महषि ने : दो अभिप्रायार्थ—(१) प्रस्तुत शास्त्र के कर्ता प्राचार्य शय्यं भव ने, (2) गणधर नं / ' प्रस्तुत 284 वीं सूत्रमाथा का अर्थ वृत्तिकार और दोनों चणि कार अलग-अलग करते हैं / वृत्तिकारसम्मत अर्थ फार दिया गया है। चािकारय-सम्मत अर्थ इस प्रकार है- सर्व कालों और सर्व क्षेत्रों में बुद्ध (तीर्थकर भगवान् ) उपधि / दवदृष्य-वस्त्र) के साथ प्रजित होते हैं। प्रत्येकवद्ध, जिनपिक आदि भी संयम-धन की रक्षा . ! उपधि (रजोहरण, मुख वत्रिका प्रादि) ग्रहण करते हैं / व उपकरणों पर तो दूर रहा, अपने तन पर भी ममत्व नहीं करने, क्योंकि वे केवल यतना के लिए उपकरण धारण करते हैं / 32 छठा प्राचारस्थान : रात्रिभोजनविरमणव्रत 285. अहो निच्चं तबोकम्मं सव्वबुद्ध हि वणियं / जा य लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं // 22 // 286. संतिमे सुहमा पाणा तसा अदुव थावरा। जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे? // 23 // 30. 'तु: धारणा णाम संपयोग्रणथं धान्जिइ. जहा उप्पणे पयोगणात परिमजिस्सामि ति, एसा धारणा। पारहरणा नाम जा सयं वत्थादी परिजइ, मा परिहरणा भणह।' --जिन दासचूणि, 1. 221 31. (क) गणधग, मणपिया वा एकमाहुः। वही, पृ. 221 (ख) महर्षिणा ---- गणधरेण, सूत्रे से जंभव पाहेति / .. हारि, वृत्ति, पत्र 191 32. (क) दश. (सनवालजी), पृ. 76 (ख) दशव. (प्राचार्य श्री आत्मागममी म.), पृ. 336 (ग) सम्वत्थ उन धिणा सह सापकरण वृद्धा-जिणा 1 मवेयि एगदुमेण निगना / पत्तैयबुद्ध-जण कपियादयो वि रयहरण-महणतगातिणा सह संजमसार कखण ये परिगण मन्द्रमते. तषि विजमावि भगवतो मच्छ न गच्छनीति अपरिगहा। कह च ते भगवो उवकरण मच्छ काहिति, जाह जयणत्यागरण धारिजति तमि ? अवि अप्पणो वि देहमि णानति माइत। ___-अगर मणि , पृ. 148 (घ) संरक्षणपरिग्रह इति संरक्षणाय पणां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सन्यपि नाचरन्ति भमत्वमिति योगः / बुद्धाः यथावद्विदितवानुतन्याः साधवः / सर्वत्र उचित क्षेत्र काले च ।-हारि. वृत्ति, पत्र 199 (ङ) सन्वेसु अलीलाणागतेमु सयभूमिए ति / -जिन. चूणि, पृ. 221 (च) संरवखुणपरिगही नाम संजमरखगनिमितपरिगिहति। -वहीं, प. 221 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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