________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] [243 सनिधिकामी को प्रवजित मानने से इन्कार-शास्त्रकार या तोर्थंकर मानते हैं ('मन्ने' शब्द से दोनों अर्थ निकलते हैं) कि सन्निधि करना तो दूर रहा, सन्निधि करने की इच्छा करनेवाला भी परिग्रहदोष से युक्त होकर गृहस्थतुल्य बन जाता है। वस्तुतः प्रवजित नहीं रहता। व्यवहारसूत्र की टीका में दशवकालिकसूत्र की एक गाथा उद्धत को गई है / उसमें बताया गया है कि अशनादि चतुर्विध आहार की जो भिक्षु सन्निधि (संचय) करता है वह गृही है, प्रवजित नहीं / 27 उस गाथा का अन्तिम चरण ही इस गाथा से मिलता है / प्रथम तीन चरण पृथक हैं / __ शंका-समाधान-प्रश्न होता है-लवणादि का तथा उपलक्षण से किसी भी वस्तु का संग्रह करने से अपरिग्रहवत भंग हो जाता है, तब साधू-साध्वी जो वस्त्र, पात्र, रजोहरण, पुस्तक आदि रखते हैं, उनका उपयोग करते हैं, क्या वे परिग्रहो नहीं हैं ? क्या उनसे साधू का अपरिग्रहवत दुषित नहीं होता ? इसी का समाधान शास्त्रकार दो गाथाओं द्वारा करते हैं / तात्पर्य यह है कि साधुवर्ग के पास जो भी वस्त्र-पात्रादि उपकरण होते हैं, वे सब संयमपालन के लिए तथा लज्जानिवारण के लिए ही रखे जाते हैं। उन पर उनका ममत्व नहीं होता, यहाँ तक कि वे अपने शरीर पर भी ममत्वभाव नहीं रखते और भगवद्वचनानुसार ममता-मूर्छा न हो, वहाँ परिग्रहदोष नहीं होता, क्योंकि भगवान् ने मूर्छा को ही परिग्रह कहा है / संजम-लज्जद्वा : व्याख्या साधु-साध्वी जो भी कल्पनीय शास्त्रोक्त वस्त्रादि धर्मोपकरण रखते हैं, उसके दो प्रयोजन बताए हैं-संयम और लज्जा / वृत्तिकार ने संयम और लज्जा को अभिन्न (एक शब्द) माना है, तदनुसार एक ही प्रयोजन फलित होता है--संयमरूप लज्जा की रक्षा के लिए। वस्त्र का ग्रहण संयम के निमित्त किया जाता है। वस्त्र के अभाव में कोई साधु शीत से पीडित होकर अग्निसेवन न कर ले, इसलिये वस्त्र रखने का विधान है / पात्र के अभाव में संसक्त और परिशाटन दोष उत्पन्न होंगे, इसलिये पात्र रखने का विधान है। वर्षाकल्प आदि में अप्काय के जीवों की रक्षा के लिए कम्बल रखने का विधान है तथा लज्जानिवारणार्थ चोलपट आदि वस्त्र रखने का विधान है, कटिपट के अभाव में महिला प्रादि के समक्ष विशिष्ट श्रुत-परिणति आदि से रहित साधक में निर्लज्जता होनी संभव है।" 27. व्यवहारसूत्र, उ. 5, गा. 114 28. (क) दशवं. (संतबालजी), पृ. 75 (ख) दशवे. (याचार्य श्री पात्मारामजी म.), पृ. 335 29. (क) संयमलज्जार्थमिति-संयमार्थं पात्रादि,""लज्जार्थं वस्त्रम् / तदव्यतिरेकेण अंमनादी विशिष्ट तपरिणत्यादिरहितस्य निर्लज्जतोपपत्तेः। अथवा संयम एव लज्जा, तदर्थ सर्वमेतद वस्त्रादि धारयन्ति / -हारि. वृत्ति, पत्र 199 (ख) '.."संजमनिमित्तं वा वत्थस्स गहणं कीरइ / मा तस्स अभावे अग्गिसेवणादिदोसा भविस्संति, पाताभावेऽवि संसत्तपरिसाडणादी दोसा भविस्संति, कंबलं वासकप्पादीतं उदगादि-रक्खणटठा घेप्पति / लज्जानिमित्त चोलपट्रको घेप्पति।' -जिनदासणि, प. 221 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org