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________________ 232] [दशवकालिकसूत्र दर्शनसम्पन्न-दर्शनावरणीय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला सामान्य निराकार अवबोध दर्शन कहलाता है। उक्त दर्शन से सम्पन्न / ' संयम और तप में रत-१७ प्रकार के संयम और 12 प्रकार के तप में रत / प्रागमसम्पन्नजो ग्यारह अंगों के अध्येता एवं वाचक हों, अथवा चतुर्दश पूर्वधर हों, या स्वसमय-परसमय के ज्ञाता विशिष्ट श्रुतधर हों / ज्ञान-दर्शन सम्पन्न से प्राप्त विज्ञान की महत्ता, और आगमसम्पन्न से दूसरों को ज्ञान देने की क्षमता बताई गई है। उद्यान में समवसृत : उद्यान के दो अर्थ मुख्य हैं-(१) पुष्प, फल आदि से युक्त वृक्षों से जो सम्पन्न हो, और जहाँ लोग उत्सव आदि में एकत्रित होते हों, (2) नगर का निकटवर्ती वह स्थान, जहाँ लोग सहभोज या क्रीड़ा के लिए एकत्र होते हों / ऐसे उद्यान में समवसृत, अर्थात् विराजित अथवा धर्मसभा में प्रवचन आदि के लिए विराजित / गणी-गणनायक, प्राचार्य / 3 जिज्ञासुगण : व्याख्या गणिवर्य के निकट जिज्ञासु बन कर राजा, राजामात्य, माहन (ब्राह्मण) एवं क्षत्रिय पहँचे थे। राजा का अर्थ प्रसिद्ध है। राजामात्य-मंत्री, सेनानायक और दण्डनायक प्रभति, (2) मंत्रीगण, (3) राजा के सहायक या कर्मसचिव / क्षत्रिय के तीन अर्थ मिलते हैं—(१) राजन्य या सामन्त, (2) ऐसे क्षत्रिय, जो राजा नहीं हैं, (3) श्रेष्ठी आदि जन / निहु-अप्पाणोनिभृतात्मान:-निश्चलात्मा, एकाग्रता एवं शान्ति से प्रश्न पूछने वाला ही सच्चा जिज्ञासु होता है / 2. (क) नाणं पंचविहं मति-सुयाऽवधि-मणपज्जव-केवलणामधेयं तत्थ तं दोहि वा मुतिसुतेहि, तीहिं वा मति सुयावहीहिं. अहवा मति-सुय-मणपज्जवेहि, चतुहिं वा मतिसुयावहिमणपज्जवेहि; एक्केण वा केवलनाणेण संपण्णं / ---अगस्त्यचणि, पृ. 138 (ख) दर्शनं द्विप्रकारं क्षायिक क्षायोपशमिकं च / अतस्तेन क्षायिकेण क्षायोपशमिकेन वा संपन्नम् / -हारि. वृत्ति, पत्र 191 3. (क) आगमो सुतमेव / अतो तं चोद्दसपुब्बिं एकारसंगसुयधरं वा / –अ. चू., पृ. 138 (ख) आगमसंपन्नं नाम वायगं, एक्कारसंगं च, अन्न वा ससमय-परसमयवियाणगं / -जि. चू., पृ. 208 (ग) आगमसंपन्नं-विशिष्टश्रुतधर, बह्वागमत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमेतत् / -हारि. वृत्ति, पत्र 191 (घ) नाणदंसणसंपण्णमिति एतेण प्रातगत विण्णाणमाहप्पं भण्णति, गणि प्रागमसंपण्णं एतेण परम्माण सामत्थसंपण्णं / -अगस्त्यचणि, पृ. 138 (ड) उज्जाणं जत्थ लोगो उज्जाणियाए वच्चति, ज वा ईसि णगरस्स उवकंठं ठियं तं उज्जाणं / नि. उ. 8 (च) उद्यानं पुष्पादिसद्वक्षसंकुलमुत्सवादी बहुजनोपभोग्यम् / --जीवाभि. सू. 258 वृ. (छ) बहुजनो यत्र भोजनार्थ याति / -समवायांग 117 वृ. 4. (क) रायमच्चा--प्रमच्चा डंडणायगा, सेणावइप्पभितयो। -जि. चू., पृ. 208 (ख) राजामात्याश्च मंत्रिणः / -हारि. व., पृ. 191 (ग) अमात्या नाम राज्ञः सहायाः ! —कौटिल्य. अ. 84 (घ) खत्तिया राइण्णादयो / -प्र. चु., पृ. 138 / (ङ) क्षत्रिया: श्रेष्ठ्यादयः / ---हारि. व., प. 191 (च) खत्तिया नाम कोइ राया भवइ ण खतियो, अन्नो खत्तियो भवई ण राया। तत्थ जे खत्तिया, ण राया, तेसि गहणं कयं / —जिन. चू., पृ. 208-209 (छ) दशवै. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 310-311 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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