________________ छठें : धम्मऽत्थ-कामऽज्झयणं (महायारकथा) छठा : धर्मार्थकामाऽध्ययन (महाचार-कथा) प्राथमिक * दशवकालिक सूत्र का यह छठा अध्ययन है। इसके दो नाम मिलते हैं—'धर्मार्थ-कामाऽऽध्ययन' और 'महाचारकथा'। * 'धर्मार्थ-काम' का भावार्थ है-श्रुत-चारित्ररूप धर्म का अर्थ-प्रयोजन भूत जो मोक्ष है, एकमात्र उसी की कामना--अभिलाषा करने वाले मुमुक्षु सत्पुरुष / और महाचारकथा का अर्थ है(उन्हीं मुमुक्षु पुरुषों के) महान् आचार का कथन / दोनों नामों का संयुक्तरूप से अर्थ यों हुआ---धर्म के लक्ष्यरूप मोक्ष के इच्छुक महापुरुषों के प्राचार का कथन है।' * श्रुत-चारित्ररूप या सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप सद्धर्म, संवर और निर्जरा (कर्मक्षय) से होता है, और उक्त सद्धर्माचरण का फल है-मोक्ष-प्राप्ति / अर्थात्---सद्धर्म के आचरण का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति है। और मोक्ष-प्राप्ति कर्मबन्धनों से सर्वथा मुक्त हुए बिना नहीं हो सकती / कर्मबन्धन से मुक्त होने का उत्तम मार्ग है—सम्यग्दर्शनादि धर्म का आचरण / निष्कर्ष यह है कि मोक्ष साध्य है, और उसकी प्राप्ति के लिए श्रुत-चारित्ररूप या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म साधन है / महाव्रती साधु-साध्वियों के द्वारा सद्धर्म के आचरण का नाम ही महाचार है। पूर्ण त्यागमार्ग की साधना करने वाले साधु-साध्वियों के त्यागरूपी प्रासाद के प्रमुख स्तम्भ 'आचार' हैं। प्राचार-सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रधर्म का अंग है। दूसरे शब्द में कहें तो चारित्र धर्म का सम्यक् पालन करने के लिए जो मौलिक नियम निर्धारित किये जाते हैं, उनका नाम आचार है / उस प्राचार के बिना निर्ग्रन्थ साधुवर्ग के पांच महाव्रतों का पालन सम्यक् प्रकार से नहीं हो सकता। 1. (क) “धर्म: चारित्रधर्मादिस्तस्य अर्थ-प्रयोजनं मोक्षस्तं कामयन्ति-इच्छन्तीति धर्मार्थकामाः-मुमुक्षवः / " -हारि. वृत्ति, पत्र 192 (ख) “जो पुब्धि उद्दिट्टो आयारो सो अहीणम इरित्तो / सच्चेव य होइ कहा, पायारकहाए महईए // " -नियुक्ति मा. 205 2. (क) धम्मस्स फलं मोक्खो, सासयमउल सिवं अणाबाहं / तमभिप्पेया साहू, तम्हा धम्मत्थकामत्ति / / -नियुक्ति गा. 265 (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. 70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org