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________________ 228] [दशवकालिकसूत्र जाती है / वे लोग उसकी निन्दा करते हैं / उसका यह पाप छिपा नहीं रहता। इसलिए वह सर्वत्र गहित और निन्दित होता है। निष्कर्ष यह है कि ऐसा अनाराधक (विराधक) साधु न तो धर्म को आराधना कर सकता है, न धार्मिक महापुरुषों की / सर्वत्र तिरस्कारभाजन बनता है / 42 अगुणाणं विवज्जए-अवगुणों का त्याग कर देता है, या (2) अवगुणरूपी ऋण नहीं करता / 'अवगुण' शब्द का प्राशय यहाँ है—प्रमाद, अविनय, क्रोध, असत्य, कपट, रसलोलुपता आदि)४३ समाचारो के सम्यक् पालन को प्रेरणा : उपसंहार 263. सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहि संजयाण बुद्धाण सगासे / तत्थ भिक्खु सुप्पणिहिइंदिए तिव्वलज्जगुणवं विहरेज्जासि // 50 // ___ --त्ति बेमि॥ पिण्डेसणाए बीओ उद्देसओ समत्तो पंचमं पिंडेसणाऽज्य णं समत्तं // 5 // [263] (इस प्रकार) संयमी एवं प्रबुद्ध गुरुत्रों (प्राचार्यो) के पास भिक्षासम्बन्धी एषणा की विशुद्धि सीख कर इन्द्रियों को सुप्रणिहित (समाधिस्थ) रखने वाला, तीव्रसंयमी (लज्जाशील) एवं गुणवान् होकर भिक्षु (संयम में) विचरण करे // 50 // -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- एषणाविशुद्धि सीखे और उत्कृष्ट संयम में विचरे–प्रस्तुत उपसंहारगाथा में दो प्रेरणाएँ मुख्यतया विहित हैं। तिव्वलज्ज-गुणवं : भावार्थ तीव्र उत्कृष्ट, लज्जा—संयम और गुण से युक्त होकर / 44 / पिण्डैषणा अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त // / पांचवाँ पिण्डषणा नामक अध्ययन सम्पूर्ण / / 42. दशवे. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी महाराज), पृ. 294 43. (क) वही, पृ. 299, (ख) अगस्त्यचूर्णि, पृ. 136 : 'अगुणो एव रिणं, तं विवज्जेति।' 44. "लज्जा—संजमो / तिव्वसंजमो-उक्किटो संजमो जस्स सो तिव्वसंजमो भण्णइ।" --जिन. चणि, पृ. 205 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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