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________________ 222] दिशवकालिकसूत्र स्वार्थ को प्रमुखता देकर बहुत पाप उपार्जित करता है / वह सदैव नीरस पाहार से असन्तुष्ट रहता है, मोक्ष से दूर हो जाता है। दूसरे प्रकार की प्रवृत्ति वाला साधु बहुत मायाचारी करता है / वह प्रशंसा और प्रसिद्धि पाने की दृष्टि से ऐसा करता है ताकि वे उसे आत्मार्थी, सन्तोषी, नीरसाहारी, रूक्षजीवी समझे, ऐसे साधु की मनोवृत्ति का स्पष्ट चित्रण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-'वह पूजासत्कार पाने का इच्छुक, यशोलिप्सु एवं सम्मान-कामना से प्रेरित है। वह तीव्र मायाशल्य का सेवन करता है जिसके फलस्वरूप अनेक पाप-कर्मों का बन्ध कर लेता है। विणिगृहई' आदि विशेष शब्दों के अर्थ-विणिगृहई-नीरस वस्तु को ऊपर रख कर सरस वस्तु को ढंक लेता है। आययट्ठी : तीन अर्थ-(१) आयतार्थी-मोक्षार्थी / (2) आयति अर्थीआयति--आगामी काल के हित का अर्थी-अभिलाषी। (3) प्रात्मार्थी / लहवित्ती-रूक्षवृत्ति-(१) रूक्षभोजी, (सरस स्निग्ध आहार की लालसा से रहित) और (2) संयमवृत्ति वाला / पसवई उत्पन्न या उपार्जन करता है / पूयणट्ठा-पूजा चाहने वाला अर्थात्-वस्त्र- पात्रादि से सत्कार चाहने वाला। माणसम्माणकामए--वन्दना, अभ्युत्थान (आने पर खड़ा हो जाना) आदि मान है, और वस्त्र-पात्रादि का लाभ सम्मान है। अथवा एकदेशीय पूजाप्रतिष्ठा मान है, और सर्व प्रकार से पूजाप्रतिष्ठा सम्मान है / मान-सम्मान का अभिलाषी—मानसम्मान-कामुक है / मद्यपान, स्तन्यवृद्धि आदि तज्जनित दोष एवं दुष्परिणाम 249. सुरं वा मेरगं वा वि अन्नं वा मज्जगं रसं / ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो // 36 // 250. पियए एगो+तेणो, न मे कोइ वियाणइ / तस्स पस्सह दोसाई निर्याड च सुणेह मे // 37 // 30. (क) “विविहेहिं पगारेहिं गृहति विणिगृहति, अप्पसारियं करेइ, अन्नेण अंतपंतेण ओहाडेति / " -जिनदासचूणि, पृ. 201 (ख) विनिगूहते---अहमेव भोक्ष्ये, इत्यन्त-प्रान्तादिनाऽऽच्छादयति। --हा. वृत्ति, पत्र 187 (ग) आयतो मोक्खो, तं पाययं अत्थयतीति प्राययदी। —जिन. चणि, प. 202 (घ) प्रायती-'पागामिणि काले हितमायतीहितं, आयतीहितेण अत्थी आयत्थाभिलासी / -अगस्त्यचूणि, पृ. 133 (ङ) दश. (प्रा. म. मं. टीका) भा. 1, पृ. 528 (च) रूक्षवृत्तिः संयमवृत्तिः। -हारि. वृत्ति, पत्र 187 (छ) लुहाइ से वित्ती, एतस्स ण णिहारे गिद्धी अस्थि। --जि. प., पृ. 202 (ज) तत्र वन्दनाऽभ्युत्थानलाभनिमित्तो मानः, वस्त्र-पात्रादिलाभनिमित्तः सम्मानः / -हारि. वृत्ति, पत्र 187 (झ) अहवा माणो एगदेसे कीरइ, सम्माणो पुण सव्वपगारेहि इति। -जिन. चूणि, पृ. 202 पाठान्तर-+ पियाएगइयो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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